कही शर्म न हो जाएँ शर्मसार


विचारों में खुलापन होना समय की माँग है पर जब विचारों का खुलापन शरीर पर आ जाता है तब इसे आजादी या खुलापन नहीं बल्कि 'अश्लीलता' कहना ही उचित होगा। कहते हैं व्यक्ति के परिवार में जब तक संस्कार जीवित रहते हैं। तब तक संस्कारों व मर्यादा का आवरण उसे हर बुराई से बचाता है। लेकिन जब अच्छाइयों पर आधुनिकता का भद्दा रंग चढ़ता है तब संस्कार, मर्यादाएँ, प्रेम, विश्वास सब ताक पर रख दिया जाता है।

पश्चिम की तर्ज पर खुलेपन की कवायद करने वाले हम लोग अब 'लिव इन रिलेशनशिप' और 'समलैंगिक संबंधों' का पुरजोर समर्थन कर विवाह नामक संस्कार का खुलेआम मखौल उड़ा रहे हैं। आखिर क्या है यह सब? यदि यह सब उचित है तो फिर माँ-बेटी, ससुर-जमाई, बाप-बेटा, बहन-बहन यह सब रिश्ते तो 'समलैंगिक संबंधों' की भेट ही चढ़ जाएँगे और हमारा बचा-कुचा मान-सम्मान किसी के घर में उसके बेडरूम तक दखल कर 'लिव इन रिलेशनशिप' के रूप में चादरों की सिलवटों में तब्दील होकर शर्मसार हो जाएगा।

यदि ऐसा होता है तो भारत जल्द ही ब्रिटेन बन जाएगा। जहाँ 7 से 8 वर्ष की उम्र तक आते-आते बच्चों में सेक्स संबधों का न होना शर्मिंदगी की निशानी माना जाता है। शिक्षित होने के बावजूद भी इस देश में हर दिन 12 से 14 साल के बीच की कई लड़कियाँ माँ बनने का सुख जरूर हासिल करती है। 

यदि हमें भी ब्रिटेन की तरह यह सब करना ही है तो क्यों न हम हिंदू विधि में उल्लेखित एक विवाह के कानूनी रूप में मान्य व शादीशुदा होने हुए एक से अधिक विवाह के कानूनी रूप से अमान्य होने के सिस्टम को ही खत्म कर दें और जब मर्जी हो जहाँ मर्जी हो शुरू हो जाएँ। उस वक्त हमें कौन रोकने वाला होगा न तो धरती पर मौजूद व्यक्तियों का समूह, जिसे हम समाज कहते हैं और न ही वह सर्व शक्तिमान सत्ता, जिसे हम भगवान कहते हैं।  

आदमी और जानवर में कुछ तो फर्क समझो मेरे भाई। यदि आदमी पशुता पर उतर आएगा तब तो यह धरती जंगल बन जाएगी और हर वयस्क आदमी भूखा भेडि़याँ। कहीं न कहीं मेरे ये शब्द आपके दिलों में शूल की तरह चुभ रहे होंगे पर क्या करूँ खामोश रहना भी तो जुल्म की मौन स्विकारोक्ति के समान है। मेरी मानों तो अब वक्त आ गया है जागने का और जगाने का। अपनी आवाज उठाने का। यदि हम आवाज नहीं उठाएँगे तो शायद हम अपने संस्कारों को खो देंगे। जिसकी वजह से आज विश्व में हमारी एक अलग पहचान काबिज है। 

- गाय‍त्री शर्मा 

Comments

सीमायें कब पार हो जाती हैं, पता ही नहीं लगता है।
आजकल तो भारत में भी इस तरह की बातें करने पर लोग पिछड़ा समझते है। संस्कारों पर बाजारवाद हावी है। अब तीर हाथ से निकल चुका। देखते रहिए आने वाले दस सालों के बाद हालात कितने भयानक होंगे।

Popular posts from this blog

महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ब्लॉगरों का जमावड़ा

रतलाम में ‘मालवी दिवस’ रो आयोजन