रतलाम का मालवी दिवस, कवियों के साथ कवियों की बात

कहते हैं जब मिठास मौखिक न्यौते में ही हो तो चिट्ठी-पत्री बगैर भी व्यक्ति मुकाम पर पहुँच जाता है। कुछ ऐसा ही न्यौता मुझे भी संजय जोशी जी द्वारा मालवी दिवस के कार्यक्रम का मिला। एक मौखिक निमंत्रण पर उसमें भी अपनत्व की मिठास, तो भला मैं क्यों न जाऊँ उस कार्यक्रम में? संजय जी के निमंत्रण पर 6 अप्रैल को मैं भी जा पहुँची इस कार्यक्रम के उसी पुराने ठिकाने यानि कि रतलाम के मेहँदीकुई बालाजी मंदिर परिसर के हॉल में।
     पहले से सजी-सजाई कवियों की रेडिमेड महफिल में ‍मैं भी फिट होने के लिए तैयार थी। जिस तरह एक-एक बूँद से घड़ा भरता है। ठीक उसी तरह यह महफिल भी एक-एक आम कवि को खास बनाने के लिए दरवाजे की ओर टकटकी लगाएँ बैठी थी क्योंकि यहाँ देखों तो सबके सब कवि थे और मानों तो हर कवि एक श्रोता था। यह बात राज़ की बात है। जिसे आप अभी नहीं समझ पाओगे।
हांलाकि महफिल को देखकर मेरे मन में बड़ा संशय था कि वहाँ मौजूद सभी विद्वतजनों की और खासकर संजय जी की अपेक्षाओं पर एक कवि के रूप में मैं खरा उतर पाऊँगी कि नहीं। लेकिन मन में विश्वास और हिम्मत जगाने के लिए मेरे भीतर की गायत्री स्वाभिमान से लबरेज थी, जो यहीं कह रही थी। मैं जो करूँगी, बहुत अच्छा करूँगी। बस इसी विश्वास के साथ मैं भी अपने पैर पसार कर बैठ गई हास्य-व्यंग्य की महफिल यानि कि मालवी दिवस के कार्यक्रम में।
      यहाँ आकर लगा जैसे में हास्य-व्यंग्य और गंभीर लेखन के छोटे-बड़े पटाखों के बीच एक अदनी सी फुलझड़ी हूँ। एक से बढ़कर एक प्रतिभाएँ और काव्य गोष्ठी के संचालक प्रतिभावान कवि जुझार सिंह भाटी जी की शेरो-शायरी की फुहार। ऐसा लगता है पूरी तैयारी के साथ हर कवि के लिए भाटी जी कुछ न कुछ कविताएँ लिखकर लाए थे। जिसे सुनाकर उन्हें जहाँ कवियों के मन में अपनी जगह बनाई। वहीं महफिल में खूब ‘वाह-वाह’ की दाद पाई।

विराग जैन :
महफिल की शुरूआत हुई हर बार की तरह एक नवोदित कवि विराग जैन की लांचिंग से। जो काव्य पाठ के मामले में छोटा पैकेट, बड़ा धमाका साबित हुआ। ‘माँ’ पर लिखी अपनी कविता की भूमिका में विराग की सुनाई कहानी बड़ी इंट्रेस्टिंग थी। जिसे सुनकर लगा कि कविता बनाने के लिए किसी विषय विशेष की जरूरत नहीं होती है। हम रोजमर्रा की बातों से ही कविता की रचना कर सकते हैं। जब माँ ने विराग को पढ़ने के लिए रतलाम से कोटा जाने को मना कर दिया तो विराग ने अपनी माँ की इस मना यानि कि ‘ना’ कहने के कारणों को ही काव्यात्मक अभिव्यक्ति ही दे डाली। बेटे की जिद और माँ की हठ की बहुत सुंदर प्रस्तुति थी विराग की कविता। भावी कवि विराग को मेरी ओर से ढ़ेरों शुभकामनाएँ।  

सुभाष यादव :
विराग के बाद बारी आई रेलवे विभाग से रिटायर्ड सुभाष यादव जी की। होली पर सुभाष जी की कविता सराहनीय थी। जिसे कविता लेखन का एक अच्छा प्रयास कहा जा सकता है।

संजय जोशी सजग :
संजय जी यानि इस कार्यक्रम के आयोजक। अखबारों व पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य के माध्यम से पाठकों को हँसाने व गुदगुदाने वाले संजय जी ने एक छोटी सी कविता सुनाई। संजय जी की कविता फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ पर केंद्रित थी। मुझे लगता है संजय जी यदि कविता की बजाय कोई व्यंग्य सुनाते तो वह जरूर कमाल-धमाल करते क्योंकि व्यंग्य लेखन में उनकी लेखनी बहुत सधी हुई है। उनके व्यंग्य का कोई सानी नहीं है। खैर जो भी हो .. बड़े ही आत्मीय, मिलनसार संजय जी के किसी भी बात पर ‘ना’ नहीं कहने के अंदाज बहुत खूब है।

अरूण सहगल :
अरूण जी शेरो-शायरी में लाजवाब है पर कहते हैं जहाँ धमाल मचाना चाहिए। वहाँ उस महफिल में उनकी शायरी केवल कमाल पर सिमटकर रह गई। अरूण जी बहुत अच्छे शायर है। मैं चाहती थी कि वह अपनी कोई दूसरी भी शायरी सुनाएँ। मगर ये हो न सका और जो हो न सका। उसका तो बस मलाल ही किया जा सकता है। अरूण जी की शायरी ‘शुक्रिया-शुक्रिया’ कवि जुझार सिंह जी भाटी के द्वारा दिए गए इस कार्यक्रम में आने के न्यौते के प्रत्युत्तर में सुनाई गई थी। उनकी शायरी के बोल कुछ ये थे –
‘उड़ता हूँ आसमान में एक जुस्तजूँ लिए
आवारगी को पंख लगाने के लिए शुक्रिया-शुक्रिया’
आगामी मालवी दिवस पर मैं अरूण जी को फिण से सुनना चाहूँगी क्योंकि यदि वे तात्कालिक इतनी अच्छी शायरी लिख सकते हैं तो उनकी इत्मिनान से लिखी शायरियाँ कितनी लाजवाब होगी। फिलहाल तो मैं अरूण जी की शायरी सुनाने के इंतजार में टकटकी लगाएँ बैठी हूँ।

अलक्षेन्द्र व्यास :
अलक्षेन्द्र व्यास की कविता ने महफिल की सुस्ती को जोश में बदल दिया। युवा जोश और ऊर्जा से लबरेज अलक्षेन्द्र जी ने होली गीत के साथ ही वतन से जाने वाले फौजियों के लिए एक बहुत ही सुंदर देशभक्ति गीत ‘ओ वतन से जाने वाले ...’ सुनाया। इसमें कोई संदेह नहीं है ‍कि हमारे इस कुमार विश्वास यानि कि अलक्षेन्द्र जी के काव्य पाठ करने के बाद महफिल जैसे रंगीन, रंगीन और जीवंत होती गई।   

अभिसार हाड़ा :
फेसबुक पर मालवी दिवस के आयोजन का न्यौता पढ़ अभिसार जी की इस आयोजन में काव्य पाठ करने की उत्सुकता उन्हें इस महफिल में ‍खींच लाई। इसे कहते हैं सोशल नेटवर्किंग साइट्स का कमाल, जो कुएँ और प्यासे दोनों को मिलवाता है। मालवी दिवस के इस कार्यक्रम में मालवी में काव्य पाठ कर अभिसार जी ने सही माइनों में इस महफिल की शान बढ़ाई। उनकी कविता के बोल कुछ इस तरह थे -
’ऊ तो घणो भणी ग्यो रे ...,
ऊ तो हगरो हिकी ग्यो रे ....’  

संजय परसाई :
परसाई जी कविताएँ हर बार दिल को छूँ लेने वाली होती है। कहते हैं कुछ कवि दिल से लिखते हैं और कुछ मात्राओं की व्याकरण, शब्दों की जोड़-तोड़ और तुकबंदिता को ध्यान में रखकर। मुझे लगता है परसाई जी जो भी लिखते है, दिल से लिखते हैं तभी उनकी कविता में जादुई आकर्षण होता है। उनकी कविता की हर पंक्ति मानों भावनाओं के शब्दों को सारगर्भिता के सूत्रों में पिरोकर सुंदर उपमाओं से सजाई गई होती है। संजय भाई ने भाईचारे को समर्पित अपनी बहुत ही सुंदर कविता ‘परिंदे नहीं पूछते मजहब ...’ सुनाकर इस महफिल की शान में चौगुनी वृद्धि कर दी। उसके बाद उन्होंने ‘माँ’ को समर्पित अपनी एक अन्य कविता का भी पाठ किया। जिसके बोल थे ‘इस बार जब मैं घर पहुँचा तो माँ नहीं उनकी तस्वीर से मिला ...।‘

हरिओम बैरागी :
संजय जी के ठीक बाद उन्हीं की तरह कविता में उपमाओं के मामले में कमाल कराने वाले नवोदित युवा कवि हरिओम बैरागी ने अपनी रचनाएँ सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। मेरी मानें तो सही माइनों में इसे कहते हैं असली कवि। हरिओम की कविताएँ गंभीर भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति सी प्रतीत होती है। सांप्रदायिक सौहार्द पर केंद्रित हरिओम की कविता और माँ तथा गुरू की महत्ता पर सुनाई उनकी कविता अपनी हर पंक्ति में एक गंभीर संदेश लिए हुए थी। यदि यह उनकी ही लेखनी का कमाल है तो वाकई में हरिओम की लेखनी लाजवाब है।    

भटनागर जी :
प्रेम का हर क्षण अनमोल है। आज जो आपके पास है। उसी में जिंदगी है क्योंकि कल फिर ये मौका मिले न मिले। भटनागर जी की कविता ने हमें कृष्ण-राधा के अटूट प्रेम से परीचित कराया। कृष्ण के राधा को छोड़कर जाने का दर्द और राधा-कृष्ण को मुश्किल से मिले प्रेम के पलों की बड़ी ही सुंदर अभिव्यक्ति मुझे भटनागर जी की कविता ‘रास अंतिम तू रचा ले प्रिये, क्या पता फिर ये मौका मिले न मिले ...’ में सुनने को मिली।

आज़ाद भारती :
मँहगाई की मार और बेरोजगारी की समस्या में फँसे आम आदमी की आवाज बनी आज़ाद भारती की कविता - ‘दैनिक आशाओं पर जी रहाँ हूँ मैं, जहर को अमृत समझकर पी रहा हूँ मैं।‘ वाकई में आम आदमी की जिंदगी कितनी मुश्किलें है, उसका बखूबी वर्णन भारती जी की कविता में सुनने को मिला।

राजमल नांदेचा :
देश की सबसे ज्वलन्त समस्या ‘कन्या भ्रूण हत्या’ पर महफिल का ध्यान आकृष्ट कर राजमल जी ने एक गंभीर विषय को सरल तरीके से कविता के माध्यम से श्रोताओं के बीच रखा।

गणपत गिरि गोस्वामी :
चिडि़याघर के ‘गधाप्रसाद’ की तरह अपने मासूम से लुक और हास्य-व्यंग्य के अनूठे अंदाज के कारण गणपत गिरि जी हास्य-व्यंग्य की हर महफिल की शान बनते हैं। बगैर किसी विशेष प्रयास के भी इनके मुँह से निकली हर बात हमें गुदगुदाने पर मजबूर कर देती है क्योंकि इनका अंदाज-ऐ-बँया है ही इतना लाजवाब। तकिया कलाम ‘आपके मुँह में’ और गाँव में ‘बफ्फैट पार्टी’ पर सुनाए गए गणपत जी के व्यंग्य अभी भी मेरी जुँबा पर है। जिसे अपने दोस्तों को सुनाकर मैंने भी खूब ठहाकें लगाएँ। लता जी मिमिक्री करने में पारंगत गणपत जी के बारे में मैं यहीं कहूँगी कि व्यंग्य के मामले में ये है झकास, मस्त और बिंदास।

रामेश्वर प्रचंड :
उज्जैन से पधारे रामेश्वर प्रचंड अपने परिचय की बड़ी-बड़ी भूमिकाओं के आगे बौने साबित हुए। ‘पिता’ पर कविता सुनाते-सुनाते भावनाओं के आवेग में खोकर प्रचण्ड जी न जाने कहाँ खो गए? कविता में उनके स्त्रियों के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैये व आक्रामक अंदाज से मुझे थोड़ी सी निराशा जरूर हुई। किसी भी संतान के जीवन में पिता की भूमिका भी अहम होती है पर इस भूमिका को यह कहकर बताना कि पिता नहीं होते तो तुम पैदा नहीं होते। कहीं न कहीं एक छोटी मानसिकता का परिचायक है। जिसका विरोध करना मेरे लिए तो स्वभाविक सा है। प्रचंड जी के प्रचंड तेवर ने ही कविता के बीच में इन्हें उलझाकर रख रख दिया और इनकी पिता पर केंद्रित कविता कुछ पंक्तियों के बाद इधर-उधर उलझकर भूल-भूलैया में खो गई। यहीं वजह है कि प्रचंड जी जितनी प्रचंडता के साथ खड़े हुए थे उतनी ही धीमी गति से अपने स्थान पर बैठ गए।

जुझार सिंह जी भाटी :
भाटी जी एक सधे हुए कवि है। इनके बारे में तो मैं यहीं कहूँगी कि ये दिखावे पर नहीं बल्कि किसी काम को कर दिखाने पर यकीन करते हैं। सादगी और सहजता ही भाटी जी की खूबी है। मालवी में भाटी जी की सुंदर रचना एक ग्रामीण स्त्री के वियोग के दर्द को मानों जीवंतता प्रदान कर रही थी। उनकी कविता की हर एक पंक्ति जैसे एक के बाद एक हमारी आँखों के सामने विरहणी के दर्द को साझा करती सी लग रही थी। भाटी जी की ‘डेरी में ऊबी वाट जोऊ मैं नाना का भईजी, नींद टूट गई राते म्हारी डाबी आँख भी फड़की ...’ यह कविता सचमुच लाजवाब थी।

फैज़ रतलामी : कहते हैं अंत भला तो सब भला। फैज़ साहब के बारे में कुछ कहना दीपक को रोशनी दिखाने के समान होगा। अनुभवों की खान फैंज साहब की लेखनी जैसे उम्र के साथ दिन-ब-दिन और भी परिष्कृत होती जा रही हैं। जहाँ हमारी कल्पनाएँ खत्म होती हैं वहाँ से फैज़ जी की कल्पनाएँ शुरू होती है। जब शेरो-शायरी का यह जुगनू जब चमकता है तो हर अँधेरी महफिल रोशन हो जाती है और हर तरफ ‘वाह-वाह’ की गूँज सुनाई देती है। उनकी यह कविता ‘जिंदाबाद ऐ भारत तुझे करता हूँ नमन’ देशभक्ति की भावनाओं के साथ ही एक युवा जोश से भरपूर थी। फैज साहब की कलम और कलम के इस जादूगर को मेरा सलाम।   
       यह थी मेरी मालवी दिवस की रिर्पोट। इस महफिल मैं सुनाई मेरी अपनी कविता बहुत उत्कृष्ट तो नहीं थी। पर मैं उसे उतनी बुरी भी नहीं कहूँगी। मेरी कविता कैसी थी। यह तो उस महफिल में मौजूद मेरे मित्रगण ही बताएँगे। मेरे कवि मित्रों, अगर मैंने कुछ गलत कहा हो तो क्षमा करें और अगर अच्छा कहा हो तो अपनी प्रतिक्रियाओं के माध्यम से मुझे अवगत कराएँ।

-          गायत्री  

Comments

गायत्री बेन ने दो कविता हुणाई घणी हाउ थी ,में इनकी लेखनी का कायल हूँ मेरे छोटे आग्रह
पर आना अपनी महत्वपूर्ण परीक्षा की तैयारी को छोड़कर ,क्योकि अगले ही दिन परिक्षा थी
पुरे कार्यक्रम में सक्रियता से भाग लिया सभी के दिलो दिमाग अपनी अमिट छाप छोड़ी और ये एक बेबाक रिपोर्ट आपके सामने है जो इस कार्यक्रम का आयना है। …हम सभी की और से
अनंत शुभकामनाए ,,,,डॉ बनने की बधाई---एडवांस में स्वीकार करे l
आपरो घणो आभार संजय भई। आपरो आग्रह वे ने मैं नी आऊँ। यो कैसे वई सके? पहलो शुक्रिया आपरी टिप्पणी का लिए और अणी वात वस्ते कि आपरे म्हारी कविता हऊ लागी। ने दूसरों शुक्रिया आपरी एडवांस शुभकामना रा लिए। आपरो मागदर्शन सदा म्हारा हंडे रे। अणी कामना रा साथ ... पुनश्च धन्यवाद संजय जी।
sanjay parsai said…
गायत्री बेन मालवी रिपोर्ट की जत्तरी तारीफ करा अत्रि कम है जतरो सोच्यो थो वणी ती ज्यादा हाउ
लिख्यो बधाई
धन्यवाद संजय भई। अत्री तारीफ रा काबिल मैं नहीं हूँ। मह्ने वणी कारिक्रम में जसो अनुभव वियो, वसो मैं लिखी काडि़यो। वणी दन आपरी हुणई कविता मह्ने घणी हऊ लागी। कदी टेम वे तो आप मह्ने आपरी 'परिंदे' कविता मेल करजो। हाची कूं तो आपकी वा कविता लाजवाब थी।
शुक्रिया अलक्षेन्द्र जी।

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