किशोर व वयस्क अपराधियों के लिए समान दण्ड

-          गायत्री शर्मा
अपराधियों के लिए खौंफ का पर्याय बनने वाला कानून ही आज सवालों के कटघरे में खड़ा हो गया है। यहाँ अपराधियों का वकील किशोरता की आड़ लेकर अपने मुवक्किल को बचाने के लिए अदालत में पेचीदा धाराओं और पुराने निर्णीत मामलों के पाँसे फेंकता है तो वहीं दूसरे कटघरे में खड़े बलात्कार व हत्या के शिकार लोगों के परिजन कानून के सामने गिड़गिड़ाकर दोषियों को कड़ी सजा देने की गुहार करते हैं। ऐसे अधिकांश मामलों में लचीली धाराओं के पेचीदा जालों में उलझा कानून असहायों की तरह मौन साध लेता है और किताबी अक्षरों को सर्वोपरि मान किशोर अपराधियों को सजा में राहत देकर स्वयं की बेबसी पर आँसू बहाता है। वाह रे मेरे देश के कानून! बलात्कार और हत्या जैसे संगीन मामलों में किशोरवयता के आधार पर दोषियों को कड़ी सजा से राहत देना कहाँ का न्याय है, जो समाज में कानून की सार्थकता का ही मखौल उड़ा रहा है? जब दोषियों ने कुकर्म करने में क्रूरता की सारी हदों को लाँघ दिया तो ऐसे में दोषियों को सजा देने में कानून को कड़ेपन से इंकार क्यों? शर्म आती है मुझे उन लोगों पर जो कानून में संशोधन का अधिकार होते हुए भी उसकी पहल न करके गैंग बलात्कार जैसे मामलों पर राजनीति करते हैं और औरतों के छोटे वस्त्र, मादक सौंदर्य तथा स्वतंत्रता पर ही नकेल कसने की बात करते हैं।
      कामुकता के नशे में औरत की आबरू के साथ-साथ उसके स्वाभिमान को भी सरेआम नग्न कर बलात्कार और हत्या जैसे संगीन अपराधों को अंजाम देने वाले अपराधियों की मानसिकता पर अब एक सवालिया निशान उठ रहा है। कहते हैं जिसे अंजाम का भय नहीं होता। वह व्यक्ति अपनी भूख, लालसा व चेष्ठा की पूर्ति के लिए कुछ भी कर सकता है। कुछ ऐसी ही मानसिकता से ग्रसित होकर किशोर अपरा‍धी अपराधों को अंजाम देते है। यहाँ हम बात कर रहे हैं औरत के जिस्म के भूखे दरिंदों यानि कि बलात्कार के अपराधियों की। फैशन व काम के मद में अंधे किशोर अपराधी कानून को खिलौना समझकर पहले उसके साथ खूब मस्ती से खेलते हैं और जब यह खिलौना उनके गले के लिए फाँसी का फंदा बन जाता है तब किशोर होने की दलील देकर वे अपराध की कठोरता से बड़ी आसानी से बच निकलते हैं। यह एक कटु सत्य है कि किशोर अपराधियों के लिए आज कानून महज एक खिलौना बनकर रह गया है। यह ज्वलन्त मुद्दा सवाल उठा है कैबिनेट मंत्री मेनका गाँधी के हाल ही में दिए गए उस बयान से जिसमें उन्होंने बलात्कार, हत्या व अन्य संगीन अपराधों के किशोर अपराधियों को वयस्क अपराधियों की तरह कड़ी सजा देने की वकालात की है। रिटायर्ड हाईकोर्ट जस्टिस श्रीमती इंद्राणी दत्ता के अनुसार भी कानून में समय के साथ-साथ जरूरी बदलाव होने चाहिए। मामले की गंभीरता को देखते हुए विशेषतौर पर बलात्कार जैसे मामलों में कानून को दोषियों के प्रति सख्त रवैया अपनाना चाहिए।
         बलात्कार के मामलों में उम्र से पहले ही अवस्कता से वयस्कता में प्रवेश करती किशोरों की मानसिकता में इस बदलाव के कई कारण है। कुछ लोग इसे हमारी जीवन शैली में बदलाव से उपजी सोच मानते हैं तो कुछ इसे पश्चिम सभ्यता में जि़स्मानी संबंधों आज़ादी की नकल का नतीजा। इसमें कोई दोमत नहीं है कि बाजार में आसानी से मिलता नीला जहर यानि पोर्नोग्राफी भी किशोरों की मानसिकता में विकृति लाने का एक प्रमुख कारण है। उम्र में संक्रमण का यह दौर यानि कि 14 से लेकर 18 वर्ष तक की उम्र में हार्मोनल बदलाव नीले जहर के प्रति किशोरों की रूचि में उत्प्रेरक का काम करते हैं। माता-पिता के अतिशय प्रेम व टैक्नो सेवी होने के नाम पर किशोरों के लिए मोबाइल, टेलीविजन व इंटरनेट आदि की सुलभता व परिवार के बड़ों की किशोरों के कार्यकलापों पर अनदेखी ही बलात्कार और हत्या जैसे मामलों में अपराधियों के रूप में किशोरों की बढ़ती भूमिका की ओर ईशारा करती है। चिकित्सकीय दृष्टिकोण से किशोरों की मानसिकता पर प्रकाश डालते हुए इंदौर के प्रसिद्ध मनोरोग चिकित्सक डॉ. आशीष गोयल का कहना हैं कि 13 से 17 वर्ष की उम्र में किशोरों में हार्मोनल बदलाव बड़ी तेजी से होते हैं जो 18 वर्ष यानि कि वयस्कता की उम्र पर आकर स्थिरता पाते हैं। ये हार्मोनल बदलाव किशोरों में न केवल शारीरिक बदलाव बल्कि मानसिक बदलावों के भी द्योतक होते हैं। यहीं वजह है कि किशोरों में अपोजिट सेक्स के प्रति आकर्षण सर्वाधिक देखा जाता है। आजकल के किशोरों का खान-पान, गलत संगत, पब कल्चर, सिनेमा, देर रात तक इंटरनेट से नजदीकी और माता-पिता की अपने बच्चों के प्रति अनदेखी व संवादहीनता ही कुछ ऐसे कारण है, जो किशोरों में आपराधिक मानसिकता के पनपने की वजह बनते जा रहे हैं।     
          किशोर अपराधियों के लिए विशेष तौर पर बना ‘जुवेलाइन जस्टिस एक्ट’ (किशोर न्याय बोर्ड) आज बलात्कार व हत्या जैसे मामलों में पीडि़त लोग व मृतकों के परिजनों के साथ सही इंसाफ नहीं कर पा रहा है। यहीं वजह है कि जघन्य अपराधों के दोषी किशोरों को अब वयस्कों के लिए बनाएँ गए कानून के दायरे में लाने की माँग की जा रही है। निर्भया सामूहिक बलात्कार मामले में भी पीडि़ता के परिजन जेवुलाइन जस्टिस बोर्ड के निर्णय से असंतुष्ट होकर सुप्रीम न्यायालय में याचिका दाखिल कर यह माँग कर चुके हैं कि इस मामले के किशोर अपराधियों पर सामान्य न्यायालय में भी बलात्कार का मुकदमा चलाया जाना चाहिए, जिससे कि मृतका के साथ सही न्याय हो। लेकिन न्यायालय ने उनकी याचिका को नाबालिग अपराधियों पर एक ही अपराध के लिए दो बार मुकदमा न चलाएँ जाने का तर्क प्रस्तुत कर नामंजूर कर दिया। ‍अकेले निर्भया मामले में ही नहीं बल्कि शक्ति मिल सामूहिक बलात्कार मामले में भी कुछ ऐसा ही चौंकाने वाला फैसला आया। इस मामले में किशोर न्यायालय ने बलात्कार के आरोपी दो नाबालिगों को अच्छा व्यवहार सीखने के मकसद से नासिक के बोस्टन स्कूल भेजने का निर्देश जारी कर दिया। बलात्कार व हत्या जैसे गंभीर मामलों में पीडि़ताओं व उनके परिजनों के साथ किया गया आखिर यह कैसा न्याय है, जो आज भी क्रूर अपराधियों के प्रति सुधारवादी रवैये की वकालत कर रहा है? यदि कानून में जघन्य व गंभीर अपराधों के मामले में किशोर और वयस्क अपराधियों पर समान दण्ड देने संबंधी संशोधन किया जाता है तो निश्चित तौर पर देश का कानून प्रभावी बनने के साथ ही दुष्कर्म पीडि़ताओं व उनके परिवारों के साथ सही न्याय कर पाएगा। कानून में कठोरता से समाज में कानून का भय निर्मित होगा और अपराधों की संख्या में भी आशातीत कमी आएगी।
........................................    

नोट : कृपया इस ब्लॉग पर प्रकाशित किसी भी सामग्री का प्रयोग करते समय मुझे सूचित करें व इस ब्लॉग का साभार सामग्री के साथ अवश्य देंवे। 
मेरे इस लेख का प्रकाशन दैनिक कल्पतरू एक्सप्रेस, दैनिक कैनविज टाइम्स, सांध्य दैनिक रतलाम दर्शन, सांध्य दैनिक अक्षरवार्ता आदि अखबारों में किया जा चुका है।

   

Comments

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ४५ साल का हुआ वो 'छोटा' सा 'बड़ा' कदम - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
Unknown said…
सत्य कहा आपने। हमेशा किशोर इसीलिए बेख़ौफ़ होते है क्योकि उन्हें कबुन नुकसान नही पंहुचा सकता। इसीलिए पिछले कुछ दमे में किशोरों द्वारा गंभीर अपराध किये जाने के आंकड़े तेजी से बढे हैं। इसलिए कानून अब बदलाव मांगता है
आपके लेख की बहुत सी बातें ठीक हैं। लेकिन एक बात जिसे हम महत्व नहीं दे रहे वह यह कि जो कानून इन दिनों बनाये गए हैं उनमें सम वय किशोर-किशोरी के बीच प्रेम और शारीरिक सम्बन्ध भी लड़की की सहमति के बावजूद रेप की श्रेणी में आते है।इससे लड़की के अभिभावकों द्वारा लड़के का जीवन बर्बाद कर दिया जाता है। यह समाज की सामान्य स्थिति है। लड़की चाहे लाख चिल्लाये की वह बालिग है और उसकी मर्जी थी तब भी वह प्रेमी को बचा नही सकती।
न्याय सिर्फ लड़की का नहीं लड़के का भी अधिकार है।कई बार शिक्षा व्यवस्था के चलते हक़ीक़त में बालिग़ हो चुके बच्चे भी उम्र ज्यादा लिखाये जाने के कारण नाबालिग श्रेणी में आ जाते है जो बड़े विद्रूप को जन्म देता है। ऐसे में कानून को कठोर बनाने की बजाय विवेक सम्मत बनाये रखना होगा ताकि अपराधी बचे नहीं और मासूम फंसे नहीं।
कानून सभी स्थितियों को ध्यान में रख कर ही बनाये जाने चाहिए। यह लोकमत का नहीं विवेक का विषय है।
liked ur name :)
प्रकाशन हेतु आपका बहुत-बहुत अाभार 'ब्लॉग बुलेटिन'।
आपकी टिप्पणी के लिए शुक्रिया स्मिता जी। यह सही है कि कानून का लचीला रवैया ही गंभीर अपराधों के मामले में नाबालिग अपराधियों की बढ़ती संख्या का कारण है। नाबालिग अपराधियों की सजा के मामले में कानून को अब सख्ती बरतनी ही होगी नहीं तो कानून के प्रति लोगों का विश्वास धीरे-धीरे खत्म होता जाएगा।
शुक्रिया परमेश्वरी जी, कानून कभी लड़के या लड़की में विभेद नहीं करता। यह कानून की उदारता ही है, जिसके चलते हमारे यहाँ 'लिव इन रिलेशनशिप' को भी कानूनी मान्यता दी गई है। हाँ, यह जरूर है कि गंभीर अपराधों हेतु दंड के मामले में कानून को अब सख्त होना पड़ेगा और कानून तभी सख्त हो सकता है, जब उसमें समय-समय पर संशोधन किया जाएँ।
Asha Joglekar said…
जो िस तरह के घिनौने अपराध कर सकता है उसे अवयस्क कैसे कह सकते हैं वह तो वयस्कोंं को भी लज्जित कर रहा है।
मैं आपके विचारों से पूर्णत: सहमत हूँ आशा जी। अपराधिक मानसिकता में वयस्कों को भी मात देने वाले आखिर दण्ड के मामले में अवयस्कता का हवाला क्यों देते हैं? जघन्य अपराधों के मामले में वयस्क हो चाहे अवयस्क, दण्ड सभी के लिए समान होना चाहिए।

Popular posts from this blog

महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ब्लॉगरों का जमावड़ा

रतलाम में ‘मालवी दिवस’ रो आयोजन