रहे सलामत मेरा सजना ...
- गायत्री शर्मा
प्रकृति ने विवाहिता के भावों को कुछ ऐसा बनाया है कि उसके हृदय के हर स्पंदन
के साथ ‘अमर सुहाग’ की दुआएँ सुनाई पड़ती है। अपने लिए वह किसी से कुछ नहीं माँगती
पर ‘उनके’ लिए वह सबसे सबकुछ माँग लेती है। धरती के पेड़-पौधे, देवी-देवताओं के
साथ ही ‘करवाचौथ’ के दिन तो हजारों मील दूर आसमान में बैठे चाँद से भी वह अपने
दांपत्य के चाँद के दीर्घायु होने की दुआएँ माँग लेती है। करवाचौथ वह शुभ दिन है,
जब चाँद से दुआएँ माँगती तो पत्नी है पर उन दुआओं का फल मिलता पति को है। सुहाग की
चीजों से सजती तो ‘सजनी’ है पर दमकता उसके ‘साजन’ का मुखड़ा है।
जिस स्त्री को पुरातन काल से हमारे समाज में नवरात्रि में ‘बेटी’ के
रूप में, विवाह के समय ‘कन्या रत्न’ के रूप में, शुभ कार्यों में ‘शुभंकर’ के रूप
में और तीज-त्योहारों पर ‘सुहागन’ के रूप में पूजा जाता रहा है। वहीं ‘देवी’ रूपी
स्त्री अपने सुहाग के सुखमय जीवन को ‘सदा सुहागन रहने के’ शुभाशीष से भरने के लिए
देवी-देवताओं को पूजने लगती है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि प्रेम व रिश्तों
को निभाने के मामले में महिलाएँ पुरूषों से कहीं अधिक विश्वसनीय और ईमानदार होती
है। यहीं वजह है कि गृहस्थी के रूप में परिवार की बागडोर संभालने से लेकर अपने
जीवनसाथी की सुरक्षा को पुख्ता करने का जिम्मा भी व्रत-त्योंहारों के रूप में समाज
ने स्त्री को ही दिया है।
विवाह के पश्चात पत्नी के रूप में जब कोई स्त्री पुरूष के जीवन में प्रवेश
करती है। तो लक्ष्मी स्वरूपा उस स्त्री के कदम पड़ते ही खुशियाँ भी अर्धांगिनी की
अनुगामिनी बन पुरूष के जीवन में प्रवेश करने लगती है। यह वहीं भारतीय स्त्री है,
जो विवाहिता के रूप में सुहाग की चीजों से न केवल स्वयं को सजाती है बल्कि पति के
प्रति सर्मपण के भावों से अपनी गृहस्थी को भी श्रृंगारित करती है। भारतीय सुहागन
के ललाट की ‘बिंदियाँ’ उसके स्वाभिमान का, माँग का ‘सिंदूर’ पति की मौजूदगी का,
पैरों की ‘बिछियाँ’ रिश्तों के प्रेमिल बँधन में खुशी-खुशी बँधने का व ‘मंगलसूत्र’
विवाहिता बनने के गौरव का प्रतीक होता है। सुहाग के इन प्रतीकों से स्वयं को सजाना
विवाहिता की विवशता या शौक नहीं बल्कि उससे कही अधिक उसके लिए सम्मान का प्रतीक
होता है। करवाचौथ के दिन शादी का जोड़ा पहनकर फिर से सजनी अपने सजना के लिए दुल्हन
सी सजती है। आज शादी के जोड़े में सजे विवाहित जोड़े के साथ ही यादें ताजा हो जाती
है, जीवन के उस यादगार दिन की, जब गठबंधन की गाँठों ने दो शरीर के साथ ही दो
आत्माओं को भी एक कर दिया था।
पति चाहे कैसा भी हो पर पत्नी उसके लिए दुआएँ माँगना नहीं छोड़ती। जब पत्नी
पति के लिए खुशी-खुशी सर्वस्व समर्पित करती है तो क्या यह पति की जिम्मेदारी नहीं
बनती कि वह भी अपनी पत्नी के लिए भी कुछ ऐसा करें, जो उसके लिए इस करवाचौथ के व्रत
को यादगार बना दें? कितना अच्छा हो गर पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे के लिए ‘करवाचौथ’
का व्रत रखें। जब जीवनसाथी के रूप में जीने-मरने की कसमें व सुख-दुख में साथ
निभानें की कसमें दोनों एकसाथ खाते हैं तो फिर चौथ का व्रत करने के लिए दंपत्ति
एक-दूसरे का साथ क्यों नहीं निभातें? आप भी मेरी इस बात पर गौर कीजिएगा। यदि आप
ऐसी पहल करते हैं तो निश्चित रूप से आपके दांपत्य जीवन में खुशियों की खनक पहले से
कहीं अधिक बढ़ जाएगी। इसी के साथ ही आप सभी को करवाचौथ की शुभकामनाएँ।
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