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Showing posts from July, 2014

बैरन भई बरखा ...

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सैय्या बिना बरखा बैरन भई, गाजत रही विरह बिजुरी।  प्रेम मगन सारा जग भया, मैं बिरहन ताकूँ पी की गली।  उलाहना देत रही टपटप बूँदे, जब पड़त रही प्यासे मन पर।  प्यास मिलन की और बढ़ी, जाके वर्षा जल बुझा न पाय। देखत है सब कुछ पिया मोरे, मंद-मंद वह रहे मुसकाएँ। बोले प्यार से - 'बैरी कहत रहे मोहे, अब बैरी को क्यों पास बुलाएँ'? - गायत्री

बूँदों ने छेड़ा है प्रीत का जलतरंग

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-           गायत्री शर्मा मन में कल्पनाओं का जलतरंग बजने लगता है, जब बारिश की बूँदे   बादलों से गिरकर गालों पर अठखेलियाँ करती है, पत्तों पर फिसलती है, माटी पर मचलती है। पिया की दूत बनकर आई शीतल बूँदे जब विरह की तपिश में तप्त तन को भिगो देती है तो विरहणी का तन-बदन मिलन का संदेश लेकर आई बूँदों के स्पर्शमात्र से सिहरकर थर्रा उठता है। कल तक खुलकर मचलते उसके केश आज होठों की थरथराहट सुन लज्जावश सहम उठते हैं और कैद कर लेते हैं प्रेम के अहसास के इस खुशनुमा मंज़र को अपनी काली घटाओं की ‍सिकुड़न भरी चादर में। प्रेमी-प्रेमिका के मिलन के इस महापर्व पर धरती की सौंधी महक फिजाओं में चहुँओर प्रेम की खुशबू बिखेर देती है। जिससे आनंदित हो मयूर मोहनी मुद्रा में नृत्य करने लगता है और पेड़ों के पात भी प्रेम के इस उत्सव में मधुर धुनों की तान छेड़ देते हैं। उन्माद, उल्लास और प्रकृति के यौवन के इस पर्व पर सृष्टि का हर जीव अपने-अपने तरीकों से खुशियाँ मना रहा है। आखिर हो भी क्यों न बरखा मिलन, प्रेम और खुशहाली का पर्व जो है। विरह की तपिश में तप्त नायिका की विरहवेला अब जल्द ही समाप्त होने वाली है। प्रेम के

कल आई थी बूँदे ...

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  मैंने बूँदों को देखा था रोशनी के साबुन से नहाते हुए हवा के तौलिये से बदन सुखाते हुए बूँदों का मादक यौवन तब शबाब पर आता था जब भौंर का सूरज उन्हें मखमली रोशनी का आईना दिखाता था टिप-टिप की पायल पहनी बूँदे कल आई थी मेरे बागीचे में बिखर गई थी खुशियाँ चहुँओर बूँदों की बारात के ठहरने पर   पत्तों ने बूंदों के लिए मखमली बिछौना सजाया घास के तिनकों ने उन्हें  अपने सिर माथे पर बैठाया    पर बूँदे तो परदेशी थी क्षणिक मिलन को आई थी ठहरना उसे कहाँ आता था कुछ पल के बाद भूमि से आलिंगन कर उसे तो भूमि के गर्भ में ही समाना था चंचल बूँदे टिप-टिप करती आई थी और बहुत खामोशी से चली गई छोड़ गई कुछ मीठी यादें जो बरखा की झडि़यों संग फिर ताजा हो जाती है बूँदे हर बार टिप-टिप कर आती है और खामोशी से दबे पाँव चली जाती है ..।  -      गायत्री शर्मा नोट : मेरी इस कविता का प्रकाशन उज्जैन, मध्यप्रदेश से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्र ‘अक्षरवार्ता’ व ‘खरी न्यूज डॉट कॉम’ पोर्टल के 24 जुलाई 2014, गुरूवार के अंक में हुआ है। कृपया इस ब्लॉग

म.प्र. हिन्दी ग्रंथ अकादमी की पुस्तक में मेरा नाम

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मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी , भोपाल (म.प्र.) द्वारा प्रदेश के तीन प्रमुख विश्वविद्यालयों (विक्रम विश्वविद्यालय , देवी अहिल्या विश्वविद्यालय एवं बरकतुल्ला विश्वविद्यालय) के बी.ए. षष्ठ सेमेस्टर हिन्दी साहित्य हेतु निर्धारित पाठ्यपुस्तक ' हिन्दी नाटक , निबंध तथा स्फुट गद्य विधाएँ एवं मालवी भाषा साहित्य ' के पृष्ठ क्रमांक 280 में मालवी में ब्लॉगिंग व माइक्रो ब्लॉगिंग करने वाले चुनिंदा ब्लॉगरों में रतलाम (म.प्र.) से मेरा का नाम प्रकाशित किया गया है। मुझ पर अपना स्नेह बनाएँ रखने के लिए मेरे गुरू डॉ. शैलेन्द्र शर्मा को सादर नमन। 

किशोर व वयस्क अपराधियों के लिए समान दण्ड

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-           गायत्री शर्मा अपराधियों के लिए खौंफ का पर्याय बनने वाला कानून ही आज सवालों के कटघरे में खड़ा हो गया है। यहाँ अपराधियों का वकील किशोरता की आड़ लेकर अपने मुवक्किल को बचाने के लिए अदालत में पेचीदा धाराओं और पुराने निर्णीत मामलों के पाँसे फेंकता है तो वहीं दूसरे कटघरे में खड़े बलात्कार व हत्या के शिकार लोगों के परिजन कानून के सामने गिड़गिड़ाकर दोषियों को कड़ी सजा देने की गुहार करते हैं। ऐसे अधिकांश मामलों में लचीली धाराओं के पेचीदा जालों में उलझा कानून असहायों की तरह मौन साध लेता है और किताबी अक्षरों को सर्वोपरि मान किशोर अपराधियों को सजा में राहत देकर स्वयं की बेबसी पर आँसू बहाता है। वाह रे मेरे देश के कानून! बलात्कार और हत्या जैसे संगीन मामलों में किशोरवयता के आधार पर दोषियों को कड़ी सजा से राहत देना कहाँ का न्याय है, जो समाज में कानून की सार्थकता का ही मखौल उड़ा रहा है? जब दोषियों ने कुकर्म करने में क्रूरता की सारी हदों को लाँघ दिया तो ऐसे में दोषियों को सजा देने में कानून को कड़ेपन से इंकार क्यों? शर्म आती है मुझे उन लोगों पर जो कानून में संशोधन का अधिकार होते हुए भी

बचपन मिल गया बारिश में

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आज तन के साथ मन भी भीगा, कल्पनाएँ भी भीग गई बारिश में। मन का मयूर नाचने लगा, बचपन मिल गया मुझे बारिश में।            सुप्त स्वप्न अब जाग उठे ,      झूम उठी स्मृतियाँ भी बारिश में।        प्रकृति की चंचलता ने छेड़े प्रेम के तराने      बूँदों के स्पर्श से सिहम गई हवा बारिश में। - गायत्री शर्मा 

हास्य का ‘हुल्लड़’ हो गया गुम

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-          गायत्री शर्मा  साहित्य जगत में हास्य-व्यंग्य का एक चमकता सितारा आज आसमान का सितारा बन बादलों की भृकुटी के बीच सज गया। काव्य मंचों पर ठहाकों की गुदगुदी बिखेरने वाला वह कवि हँसते-हँसते दुनिया को अलविदा कह गया। जाते-जाते छोड़ गया वह प्रकृति को खुशनुमा मौसम में हम सभी को हँसने-मुस्कुराने के लिए। व्यंग्य लेखन व प्रस्तुतिकरण के अपने अलहदा अंदाज से सुशील कुमार चड्ढ़ा ने व्यंग्य जगत में अपनी एक ऐसी पुख्ता पहचान बनाई थी, जिसके समकक्ष खड़े रहना किसी मामूली व्यंग्यकार के लिए एक दिवास्वप्न के समान ही था। सही पहचाना आपने, मैं बात कर रही हूँ साहित्य जगत में हास्य-व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर सुशील कुमार चड्ढ़ा की, जिसे काव्य के रसिक श्रोता ‘हुल्लड़ मुरादाबादी’ के नाम से जानते हैं। काव्य जगत में वर्षों से टिमटिमाता यह सितारा शनिवार शाम हमें अलविदा कह अकेले ही निकल पड़ा उस लंबे सुनसान सफर पर, जहाँ यह हँसाने वाला तो है पर उसकी कविताओं पर दाद देने वाले श्रोता काफी पीछे छूट गए है। कहते हैं जिस पर साक्षात् माँ सरस्वती की कृपा होती है उसके लिए कोई विधा नामुमकिन नहीं होती। माँ सरस्वती के ला

मैजिकल मलाला ...

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12 जुलाई – मलाला के जन्मदिन ‘मलाला डे’ पर विशेष -           गायत्री शर्मा  कलम की ताकत के आगे तख्त़ की ताकत भी गौण है। जब कलम क्रांति पर आमदा होती है। तब रातों-रात तानाशाहों के तख्तों-ताज़ पलट जाते हैं और र्स्वणिम इतिहास रचा जाता है। मिस्त्र की क्रांति इसका ताज़ा उदाहरण है। पाकिस्तान की स्वात घाटी में तालिबानी आंतकियों की तानाशाही के खौफ की तीव्र आँधी ने जब आज़ादी की उम्मीदों के सारे दिए बुझा दिए थे। तब दूर कहीं गोलियों की गड़गड़ाहट के बीच उम्मीद का एक नन्हा दिया मलाला युसूफज़ई के रूप में टिमटिमा रहा था। मलाला रूपी इस एक दिए ने ही आज स्वात घाटी में आज़ादी की उम्मीदों के हजारों दिए रोशन कर दिए है। नारी अधिकारों की मशाल थामें मलाला ने पूरी दुनिया में बालिका शिक्षा का अलख जगाया और यह साबित कर दिया कि तालिबानियों की कट्टरता के गढ़ को ध्वस्त करने के लिए वह अकेली ही काफी है। मलाला वह जुगनू है, जिसने स्वात घाटी में कबिलाई कानून और जातिय रिवाजों की कट्टरता के काले कायदों को आज़ादी की उम्मीदों की रोशनी से जगमगा दिया है।       स्वात घाटी में वो दहशत के दिन थें, जब दुनिया से बेखबर

गुरू एक कैसे?

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गुरू कोई भी हो सकता है। फिर चाहें वह आपका शिक्षक, माता-पिता, बच्चे या मित्र ही क्यों न हो। प्रतिस्पर्धा जीवन में सदैव चलती रहती है। शिष्यों में प्रतिस्पर्धा हो तो अच्छा लगता है परंतु जब गुरू ही बड़े-छोटे की लड़ाई में उलझ जाएँ तो वह गुरू ज्ञान में बड़े होकर भी उदारता में निम्न बुद्धि वाले छोटे हो जाते हैं। मैं कभी गुरू में एकैश्वरवाद का सिद्धांत नहीं मानती। मैं किसी भी एक व्यक्ति को ज्ञान, चरित्र और मानवता के गुणों में उत्कृष्ट नहीं मान सकती। हालांकि इसमें भी कुछ अपवाद होंगे, जो दुनिया की चकाचौंध से दूर हिमालय की कंदराओं में बैठे उस परमपिता परमात्मा से एकाकार करने में ध्यानमग्न होंगे।गुरू, जिसकी हम चरणवंदना कर उन्हें अपने मन मंदिर में पवित्र भावों के साथ भगवान के स्थान पर विराजित करें। वहीं गुरू यदि किसी स्त्री की अस्मिता से खेंले, दूसरे धर्मों का अनादर करें तो उस गुरू की पूजा मैं द्विभाव से डरते-सहमते कैसे कर सकूँगी? कैसे उस गुरू से एकांत में मैं अपने प्रश्नों के समाधान पूछूँगी? कैसे उससे जिरह करूँगी, जो स्वयं पवित्रता की कसौटी पर निम्नतम स्तर पर जा रहा है? इन प्रश्नों का जवाब जिस द

कहाँ सो रहे है आप?

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मेरे शब्दों को सूखा खा गया भावों को सूरज निगल गया माटी सूखे का मातम मना रही है पेड़ों की हरियाली पर अब शुष्णता छा रही है अब तो आँसू भी सूख-सूखकर रो रहे है पानी बाबा आप कहाँ छुपकर सो रहे है? - गायत्री   

‘निकर’ में खिल रहें ‘कूलनेस के फूल’

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-           गायत्री शर्मा ‘देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान’, आजकल की अजीबोगरीब फैशन को देख मेरी ज़ुबाँ पर तो बार-बार यही गाना आता है। समय के बदलाव के साथ हमारा खान-पान बदला, आचार-विचार बदलें पर ये क्या नए जमाने के फैशन ने तो स्त्री-पुरूष दोनों के पहनावें में एकरूपता लाकर सबको एक जैसी ‘निकर’ धारण करवा दी? एक जमाने में पैंट-शर्ट, धोती-कुर्ता और कुर्ते-पायजामें धारण करने वाले पुरूषों के साथ ही अब साड़ी व सलवार कमीज़ में अपने बदन को लपटने वाली स्त्रियाँ भी फैशनजनित बीमारी से ग्रसित हो बेखौफ निकरों में घुम रही है। निकरप्रेमियों से उनके इस नए फैशन प्रेम के पीछे कारण पूछों तो जवाब मिलता है कि ‘ये आराम का मामला है’। देखिएँ, जहाँ आराम का मामला हो, वहाँ हमारे खलल करने का तो सवाल ही नहीं होता इसलिए अपने प्रश्नों की पोटली को समेटते हुए निकर रूपी चड्ढ़ों पर खिल रहे फूलों को ही देखकर ही मंद-मंद मुस्कुराते हुए मैं चुपचाप वहाँ से खिसक लेती हूँ। ‘चड्ढ़ी’ का अब्बा बन अवतरित हुए ‘चड्ढ़े’ यानी कि ‘निकर’ का फैशन आजकल के नौजवानों पर इस कदर छाया है कि अब वे बाजार, ट्रेन,

पाणी बाबा, भाटा से दई पाड़ूँगा थने ...

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- गायत्री शर्मा    घणा दन वई गिया वाट जोता-जोता। पण यो पाणी है कि अपणा गाम रो रस्तों भूली ज गियो। काले मैं वाटे-वाटे जई री थी तो गाम रा गोयरे ठूठड़ा सा उबा झाड़का मुंडो लटकायो आसमान में देखी रिया था। मैं वासे पूछियों – ‘कई वई गियो रे भई! ऊपरा से कोई राकेट तो नी पड़ी रियो?’ म्हारों सवाल हुणी ने झाड़का बोल्या – ‘बेन! राकेट पड़ी जातो तो हऊ रेतो। हमी तो अठे पाणी रा वना ज मरी गिया हा।‘ काई करो झाड़का हे भी हाची ज किदो। पाणी वगर तो मनक भी हुक्की जावें तो ई बापड़ा झाड़का कद तक ऊबा रेगा? वाट में आगे चालता मह्ने भैं ने ऊका पाड़ा-पाड़ी मल्या। वणा से मैं पूछ्यो – ‘कई वई गियो रे बेन! आज तू हुक्की-हुक्की क्यूँ लागी री है? नन्दराम थने बखे खावा-पिवा रो दे कि नी?’ भैं बोली – ‘बेन! खावा रो तो ऊ दें पण मह्ने घणी तरे लागे। असा में पाणी री कमी रा चालता ऊ मह्ने दनभर में एक ज बाल्टी पाणी दे। अब थे ज वताओं कि पाणी बगैर यो सरीर हुकेगा कि रेगा?’ मैं किदो तू हाची ज कई री हो भैं बेन। मैं से राम-राम करी ने वाट में मैं थोड़ी ओर आगे चाली तो म्हारी नजर हूकी पड़ीगी नदी पे पड़ी। विके देखी ने म्हारों माथो तो चकरई ग

कल प्रेम आया था ...

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कल रात स्वप्न में हुआ प्रेम से साक्षात्कार वह बड़ा घबराया सा हैरान-परेशान था प्रेम बोला - तू बता मैं क्या करूँ ? जमाने वाले मेरे पीछे पड़े हैं प्रेम का नामोनिशां मिटाने पर अड़े है ऐसे में बस तू ही मेरा प्यारा है अब मुझे तेरा ही सहारा है। संर्कीणता के सवालों में उलझाकर कानून की हथकडि़याँ लगाकर रिश्तों की बेडि़यों में बाँधकर गतिबाधित कर देंगे मेरी समाज के ठेकेदार ऐसे में तू बता मेरी प्रिये मैं कैसे करूँगा तुझे प्यार? गर ना रहा मैं तो ज़माना यह समझ जाएगा कहेगा वह प्रेम डरपोक था आज आया है कल चला जाएगा। मेरा हश्र देख कोई भी न करेगा प्रेमियों की वफा पर ऐतबार फिर कोई प्रेमी न करेगा शाहजहाँ-मुमताज़ और हीर-राँझा के अमर प्रेम के उदाहरणों की बात। मैंने कहा- प्रेम! संघर्ष ही तेरा जीवन है तू बढ़ता चल , पीछे मुड़कर मत देख मरने से तू क्यों घबराता है? तेरे जीने की जिजिविषा तुझे मौत के मुँह से भी खींच लाएँगी तेरी हिम्मत के आगे तो संर्कीणता की सौ बेडि़याँ भी टूटकर बिखर जाएगी। तेरी हिम्मत के आगे तो संर्कीणता की सौ बेडि़याँ

जिम्मेदारी से जिरह करती लापरवाही

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-           गायत्री शर्मा ‍ बच्चों की जिज्ञासु प्रवृत्ति कई बार उनसे वह काम करवा देती है, जिसके परिणामों से वे पूरी तरह से अनभिज्ञ होते हैं। यहीं वजह है कि गड्ढ़े को देखने की उत्सुकतावश उसके नजदीक गया बच्चा कभी बोरवेल के गड्ढ़े में गिर जाता है तो कभी पतंग पकड़ने के लालच में छत की मुंडेर से गिर जाता है। कभी वहीं अल्पायु बच्चा माता-पिता के अतिशय प्यार के चलते कार का स्टेयरिंग थाम दुर्घटनाओं को अंजाम देता है तो कभी अवयस्कता की उम्र में बलात्कार जैसे संगीन अपराध का दोषी पाया जाता है। याद रखिएँ बच्चे की सुरक्षा व सही परवरिश हर माँ-बाप की पहली जिम्मेदारी है, जिसमें हुई चूक से घटित हुए अपराधों के प्रथम दोषी माँ-बाप ही है। यह तो हुई अपरिपक्व मानसिकता व जिज्ञासा वश बच्चों से हुई गलतियों की बात लेकिन जब माँ-बाप की गलती व लापरवाही किसी बच्चे की मौत का सबब बने तो वह गलती किसी भी कीमत पर नज़रअंदाज़ नहीं की जा सकती है। भोपाल के न्यू मार्केट स्थित कपड़ा व्यवसायी दीपक जैन के ढ़ाई वर्षीय पुत्र अतिशय जैन की कार में दम घुटने से हुई मौत माँ-बाप की घोर लापरवाही का ताजा तरीन उदाहरण है। कहते हैं रि