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Showing posts from 2021

थक गई हूं मैं

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  - डॉ . गायत्री   थक गई हूं अब मैं चलते - चलते रूक गई हूं कुछ कहते - कहते मन में उठा है प्रश्नों का बवंडर झुक गई हूं मैं उठते - उठते   तेरी जीत , मेरी हार सब स्वीकार है मेरे तर्क , तेरे कुतर्क , तेरा सम्मान , मेरा अपमान शक , तिरस्कार और झूठा दिखावे का प्यार क्या है तेरे मन में , अब सच बोल दे ना यार   अपने बिछुड़े , सपने जले तेरे तेजाब से जल गई रक्त कणिकाएं भी तू महफूज़ है पर तेरे कारण जिंदगी और मौत से हरक्षण लड़ी हूं मैं   दहेज की आग में जली हूं मैं गर्भ में घुट - घुटकर मरी हूं मैं भूखे भेड़िये सा तन - मन सब नौंच गया तू तेरा नाम हो गया और बदनाम हो गई हूं मैं   हार गई हूं मैं सिसकियां भरते - भरते शुष्क हो गये आंखों के दरिया भी अब दर्द की अब इंतहा हो गई मोम थी कल तक अब पाषाण हो गई   तन झांका पर मन न झांका इन नैनों की भाषा तू समझ न पाया सिहर जाती हूं तेरे नाम से भी अब शक का पयार्य बना है

मैं भारत की बेटी हूं

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- डॉ. गायत्री  जिंदगी में कई ऐसे मौके आते हैै, जब हम हार मानना अधिक पसंद करते है और हार मान भी लेनी चाहिए क्योंकि तर्क-कुतर्क, ज्ञान-अज्ञान, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच इन सबसे अधिक जरूरी है आत्मसम्मान। अपने स्वाभिमान या आत्मसम्मान को गिरवी रखकर जितने से बेहतर है हार जाना। उसे जीतने दो, जो आपको हराने में अपनी जीत समझता है।  बड़ा दुख होता है ये जानकर कि इंसान की समझ परिपक्वता की उम्र में भी बालपन से खेलती है, जिम्मेदारी की उम्र में लापरवाही को झेलती है और बुढ़ापे की उम्र में जवानी को खोजती है। हमारी घर और बाहर की सोच में ये फर्क कैसा? हर दिन देश में बढ़ती नारी शोषण और बलात्कार की घटनाओं से मन घबरा जाता है न चाहते हुए भी आंखों से आंसू बह निकलते है और दिल से हर आह के साथ यही चीख निकलती है - ’अब बस करो दरिंदों।’ हर सिसकी से निकली यह बददुआ इस गगन में गुंजायमान होकर चिरस्थायी हो जाती है। क्या यह वही देश है, जहां किसी घर में बेटियां भी पूजी  जाती है? कितनी आजाद है इस देश की बेटियां। यह आज एक ’रिसर्च’ का विषय हैै। इन मुस्कुराते खूबसूरत चेहरों के पीछे का दर्द आपकी मुस्कुराहट है। आपकी सुबह से लेकर रात तक को

दो विकल्प

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- डॉ. गायत्री  उसे चाहिए खुला आसमान मत करो उसे पिंजरों में कैद वो सुंदर है पर आपकी सोच बदसूरत है उसे आसमान की और आपको पिंजरे की जरूरत है परिंदों को चाहिए खुला आसमान भरने दो उन्हें ऊंची-ऊंची उड़ान सोने के जो पिंजरे आपको है भाते नन्हें परिंदे को वो जरा न सुहाते  आप उसे पिंजरे में देख मुस्कुराते हो वो आपको बाहर देख घबराता है अपनी चाह की चाहत में  इंसान परिंदे की चाहत भूले जाता है  अपनी बेबसी पर परिंदा हर दिन आंसू बहाता है क्या दोष था उसका यह उसे समझ नहीं आता  जन्म बस में गर होता तो कभी पंछी न बनना चाहता आज मांगता है वो आपसे मौत या आजादी  जंजीरों में जिंदगी की जंग अब उससे नहीं लड़ी जाती कर दो मुक्त उसे जंजीरों से या जीवन से  दोनों विकल्पों में उसकी खुशी समाई है जिंदगी फिर आपके द्वारे दो विकल्प लेकर आई हैैै।  चित्र साभार: गूगल 

वृक्षदेवी का मीराश्रय

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- डाॅ. गायत्री शर्मा   जिंदगी में मानव के अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद वर्षों से बदस्तूर जारी है परंतु मानव हर प्रयास करते-करते यह विस्मृत कर देता है कि उसके विनाश का एकमात्र बड़ा कारण वह स्वयं ही है। मानव प्रजाति के अस्तित्व से लेकर अंत तक, जीवन के हर छोटे-बड़े अवसरों से लेकर उसकी हर आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्रकृति ही उसके लिए वरदायिनी बनी है। अभाव में ही व्यक्ति को किसी वस्तु की अहमियत का सही पता चलता है। प्रकृति के कण-कण में और उसकी हर नैमतों में ईश्वर बसता है। आइए जानते है इस कहानी के माध्यम से ।     राजस्थान के जोधपुर जिले का एक छोटा गांव धौलका, जहां रहता था सोहन का गरीब परिवार। ऊंटगाड़ी चलाकर दो-जून की रोटी का बंदोबस्त करने वाले इस परिवार के लिए रोजमर्रा के पानी का बंदोबस्त करना किसी चुनौती से कम नहीं था। मुन्ना ठाकुर के दबदबे वाले इस गांव में गरीबी और छुआछूत से निपटना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती था। मुन्ना ठाकुर के आदेश पर गांव के आसपास पेड़ों की अंधाधुध कटाई हो रही थी। वनविभाग के अधिकारी भी ठाकुर साहब की जी-हुजूरी कर धड़ल्ले से अपनी जेबे भर रहे थे। गांव का एकमात्र निजी व दूसरा सरकार

नदी का गाँव

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मैंने नदी से पूछा, नदी- तेरा गाँव कहाँ है?  दिल को जहाँ सुकून मिले वो पीपल की छाँव कहाँ है?  नदी बोली- मैं जहाँ रूकती हूँ, वहीं मेरा गाँव है।  मेरी ठंडक का अहसास ही, पीपल की छाँव है।   मेरे किनारे पर ही बसते है घाट, मंदिर और बस्तियाँ अपार।  मुझी से रोशन होते है, गरीबों के घर-बार।  आलिंगन कर मेरा ही, धरती पहनती है हरियाली का गलहार।  और धानी चुनर ओढ़ करती है चट्टाने अपना श्रृंगार।   'माँ' कहकर करते है बच्चे अठखेलियाँ मेरी गोद में।  अंजुलि में लेकर सूरज की पाती भक्त चढ़ाते है मेरी गोद में।  जी भर रोता है कोई किनारे पर मेरे तो कोई चढ़ावा दे खुशियाँ मनाता है।  मेरा संपूर्ण जीवन तो परोपकार में ही गुजर जाता है।   घर से निकलती हूँ निर्मल धार बनकर लौट आती हूँ गंदगी का प्यार बनकर।  श्रृद्धा से लोग जो भी चढ़ाते है कर लेती हूँ उसको स्वीकार।  भले ही करे वो मुझसे प्यार या पहनाए मुझे गंदगी का हार।    -  गायत्री शर्मा   चित्र साभार: गूगल    कुछ चित्रों को देखकर मेरे शब्दों ने इस कविता का रूप लिया है। इस कविता में लोगों को जीवन देने वाली नदीं के प्रति पंक्तियों के रूप में मेरे विचार प्रेषित है।

अमृत महोत्सव है आज़ादी की अमरता का उत्सव

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- डाॅ. गायत्री शर्मा  अमृत अर्थात ‘अमरत्व प्राप्ति का माध्यम‘। आजादी की अमरता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए और स्वतंत्रता की मशाल को चिरकाल तक हमारे दिलों में प्रज्जवलित रखने के लिए मनाए जा रहे आजादी के अमृत महोत्सव का शुभारंभ 12 अप्रैल 2021 को स्वतंत्र भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के द्वारा किया गया। स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में 75 सप्ताह तक लगातार चलने वाले इस महोत्सव की शुरूआत महात्मा गांधीजी के कर्मस्थल अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से की गई।   भारत के इतिहास पर नज़र डाले तो वर्षों तक अंग्रेजों की गुलामी सहते-सहते कभी तो हमारे देशभक्तों को भी यह अहसास होने लगा होगा कि अब अंग्रेजों के चंगुल से भारत को आजाद करना बेहद मुश्किल और नामुमकिन है लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि मरता हुआ आदमी भी एक बार प्रतिक्षण छूटती सांसों को रोकने के लिए पूरे जोश के साथ हुंकार भरता है और अपना पूरा जी-जान उस नामुमकिन सी सांस को थामे रखने में लगा देता है। ठीक उसी प्रकार देशभक्तों की मतवाली टोली ने भी भारत की आजादी को हासिल करने के लिए पूरे जोश से ‘वन्दे मातरम्‘ कहते हुए अपने प