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धरा का बांसती स्वर

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  - डॉ. गायत्री शर्मा  बसंत प्रेम और सौंदर्य का पर्व है, जब मानव मन के साथ ही प्रकृति भी अनुपम सौंदर्य से पल्लवित हो जाती है। जब चारों ओर के नज़ारे खुशनुमा होते है तब हमारा दृष्टिकोण भी स्वतः ही सकारात्मक हो जाता है। पुष्पगुच्छ से लदे पौधे, आम की नाजुक डालियों से निकलते बौर और महुए की मादकता से मदमाती प्रकृति मानों हमें भी प्रेम के प्रेमिल बंधनों की अनुभूतियों का आनंद लेने के लिए आकर्षित करती है। इस ऋतु में चहुओर आनंद, उमंग और सौंदर्य का समागम समूची सृष्टि में जीव और जगत का एकाकार कर उन्हें एक राग और एक लय में पिरो देता है।  अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी कविता में बंसत के सौंदर्य का बखूबी वर्णन किया है-  टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर, पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर  झरे सब पीले पात, कोयल की कुहुक रात  प्राची में अरूणिम की रेख देख पाता हूं गीत नया गाता हूं   बसंत नवसृजन का उत्सव है। मां वीणावादिनी की आराधना के साथ ही हम इस दिन से नव का आरंभ करते है। प्रकृति के पीत रंग में रंगकर हम भी स्वयं को उसके एक अंश के रूप में स्वीकार्य करते हैं। ऋतु परिवर्तन से दिनचर्या परिवर्तन के इस उत्सव मे

मेरे घर राम आये हैं - गायत्री शर्मा

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मेरे राम आज घर पधारे है

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मेरे राम आज घर पधारे है विरह की पीड़ा बड़ी थी लंबी रामलला बिन मन की अवध थी सुनी कोटिक पुण्य तेरे दरस पे वारे है मेरे राम आज घर पधारे है तुझ बिन राम कैसी दिवाली अश्रुजल से बरसों जली इंतज़ार की बाती तुम जो आए पाषाण बने हृदयों में जैसे प्राण पधारे है मेरे राम आज घर पधारे है  समझ न आए कैसे करुँ मैं स्वागत दुनियादारी मैं न जानू, मैं तो तेरी प्रीत ही जानू तुझ बिन क्षण-क्षण युग-युग से मैंने काटे है मेरे राम आज घर पधारे है                                     - डॉ. गायत्री शर्मा