हर रंग है कविता के इस मंच पर ....

-          गायत्री शर्मा  

अक्सर आयोजन लोगों को मिलाते हैं लेकिन कई बार अच्छे लोगों के मिल जाने से ही बेहतर आयोजन हो जाया करते हैं। जब अच्छे लोग मिलते हैं तो जाहिर तौर पर बातें भी अच्छी ही होती है। हमारे इस मंच की खासियत ही अच्छे लोगों को मिलाना होती है। दिनांक 4 जनवरी 2015, रविवार को ‘हल्ला-गुल्ला साहित्यिक मंच’ के बैनर तले एक ऐसा ही अच्छा आयोजन हुआ। इस आयोजन का मुख्य आकर्षण थाइलैंड से हमारे बीच पधारी मालवी कोकिला ‘श्रीमती माया मालवेन्द्र बदेका’ जी थी, जिन्हें इस कार्यक्रम में ‘विशिष्ठ साहित्य सम्मान’ से सम्मानित कर हल्ला-गुल्ला साहित्य मंच ने स्वयं को गौरवान्वित महसूस किया। हमेशा की तरह मंच के संस्थापक सदस्य संजय जोशी संजग, जुझार सिंह भाटी व अलक्षेन्द्र व्यास की जुगलबंदी ने इस आम आयोजन को भी खास लोगों की उपस्थिति के कारण ‘खास’ बना दिया। चलिए, अब मैं आपको बता ही देती हूँ कि आखिर क्यों यह आयोजन ‘आम’ से ‘खास’ था?

सबसे पहले मैं यहाँ जिक्र करूँगी माया दीदी का। बड़ी ही सहज, सरल, हँसमुख व मिलनसार माया दीदी अमूमन कम बोलती है पर जब बोलती है, बात पते की बोलती है। अक्सर आपने यह सुना होगा कि दूरिया दिलों को पाटती है पर माया दीदी से मिलकर मेरा यह भ्रम टूट गया और दीदी की लेखनी पर चढ़ा ठेठ मालवी रंग देखकर लगा कि दूरिया दिलों को पाटती नहीं बल्कि और अधिक मजबूती से जोड़ती है। अपनी मालवी कविता में माया दीदी ने बड़ी ही मार्मिक बात कहते हुए दिवंगत दादा को मिली श्राद्ध की साग-पुड़ी पर उनके काल्पनिक आत्म संतोष व अन्य दिवंगत बुर्जुगों के उनके दादा के साथ हुए संवाद को बखूबी शाब्दिक अभिव्यक्ति दी। उनकी इस कविता का सार कहीं न कहीं ‘बुर्जुगों की सेवा में ही परिवार की खुशहाली का मेवा मिलता है’ में था। अपने परिवार, संस्कृति व मालवा माटी से गहरा जुड़ाव रखने वाली माया दीदी के बारे में यह कहा जाए कि आज इस कार्यक्रम में उनके भाव ही उनकी अभिव्यक्ति से बड़े हो गए थे और उनका स्नेह अधरों से खुशियों की मुस्कुराहट व शुभाशीष के रूप में हर किसी पर छलक रहा था, तो मेरा यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। सोशल नेटवर्किंग पर बड़ी दूर से मालवी में बतियाने वाली इस प्यारी सी माँ स्वरूपा दीदी से मिलकर आज मन को बड़ा सुकून मिला और एक पल के लिए तो यूँ लगा कि जैसे दीदी की बात मानकर उनके अपनत्व भरे अनुरोध पर मैं भी उनके देश थाइलैंड हो आऊँ।         

यहाँ एक बात मैं आपसे शेयर करना चाहूँगी कि इस साहित्यिक मंच के हर कार्यक्रम में मुझे कोई नवोदित कवि देखने को मिलता है। इस बार मेरे लिए वह नवोदित कवि थी – उज्जैन की मालवी कवि ‘संगीता नाग सुमन’, जिन्हें इस मंच ने 'युवा रचनाकार' सम्मान से सम्मानित किया। संगीता जी के चेहरे की मधुर मुस्कान और मालवी कविता पढ़ने का अंदाज़ वाकई में लाजवाब था। शहरी जीवन जीने वाली इस कवियित्री की आत्मा में अब भी मालवांचल का ठेठ देहाती जीवन बसता था। मालवी गीतों व मार्मिक मालवी संवादों के माध्यम से कम शब्दों में भी संगीता जी बड़ी गहरी बात कह जाती थी। अपनी प्यारी दिवंगत गाय ‘सामा’ से मार्मिक संवाद करते हुए वह कुवता के माध्यम से स्वयं से ही गौरक्षा का वादा लेती है। कभी वह अपनी कविता में मालवा की पमणाई की बात करती है तो कभी मशहूर मालवी भोज दाल-बाटी की। संगीता जी की कविता सुनकर आज मैं यह बात दावे से कह सकती हूँ कि संगीता जी को आप जल्द ही बड़े मंचों से काव्य पाठ करते हुए सुनेंगे।   

संजय जोशी जी के जिक्र के बगैर शायद मेरी इस आयोजन की चर्चा अधूरी ही रहेगी। संजय जी के स्वभाव के बारे में मैं जहाँ तक जानती हूँ। मेरा अनुभव यह कहता है कि कुछ लोग दर्द बाँटते हैं और खुशियाँ उधार लेते हैं। लेकिन मेरा यह मित्र लोगों को मुस्कुराहट देकर खुशियाँ बाँटता है और दर्द को अपने भीतर निगल लेता है। तनाव के बीच भी सदा मुस्कुराते हुए बड़े ही सहज संजय जी इस मंच की वह कड़ी है, जिनकी मिलनसारिता व मित्रता अधिक से अधिक लोगों को इस साहित्यिक मंच से जोड़े रखती है। संजय जी के व्यंग्य के चर्चे तो हर अखबार में है परंतु मंच पर चुप्पी साधने वाले इस संजय का आज एक नया रूप हमें देखने को मिला। हाँलाकि मुझे पूर्ण विश्वास है कि उनके इस नए रूप को सामने लाने में भी जरूर उस महिला का हाथ होगा, जिनकी मेहनत की बदौलत हमारे संजय भाई अखबारों में स्थान पाते हैं। संजय जी व भाभीजी दोनों के साझा प्रयासों से ही संजय जी की लेखनी की चमक तेज और धारदार बनती है। भाभीजी के प्रोत्साहन के कारण ही शायद आज संजय जी ने मंच पर अपनी उपस्थिति को छोटे-छोटे हसगुल्लों की सहायता से प्रभावी किया।

अब बात करते हैं हमारे इस मंच के कुमार विश्वास की। जी हाँ, आपने बिल्कुल सही पहचाना। हमारे यह कुमार विश्वास है – अलक्षेन्द्र व्यास। युवा जोश और ऊर्जा से लबरेज अलक्षेन्द्र जी जब-जब मंच पर आते हैं तब गंभीर से गंभीर आयोजनों का माहौल भी खुशनुमा व प्रेम के रंगों से रंगीन बन जाता है। कुशल मंच संचालक अलक्षेन्द्र जी ने अपनी वीर व श्रृंगार रस से भरपूर कविताओं को सुनाकर इस आयोजन में भी दर्शकों से खूब दाद बटोरी। उनके हर शब्द में प्रेम है और हर पंक्ति में प्रेम की धुन। तभी तो जब वह कविताएँ सुनाते हैं तो हम आँख मूँद प्रेम के सागर में डूबकियाँ लगाने लगते हैं। व्यास जी का कविता सुनाने का अंदाज ही उनकी खूबी है, जो भीड़ में उनकी एक अलग पहचान बनाती है।
कहते हैं सस्पेंस खत्म होने के बाद ही फिल्म का हीरों सामने आता है। मालवा में काव्य जगत के सशक्त हस्ताक्षर जुझार सिंह भाटी जी वो हीरों है, जो किसी भी आयोजन में चाहे सूत्रधार की भूमिका में हो या कवि की भूमिका में। उनका साइड रोल भी उन्हें लीड रोल का हीरो बना देता है। इस मंच से जुड़े वरिष्ठ व गंभीर कवि कहाने वाले भाटी जी जब मंच पर कविता सुनाना शुरू करते हैं, तब वह हर किसी को अपने रंग में रंग लेते हैं। उस वक्त मंच उनका होता है और माहौल भी वह अपने मनमाफिक बना देते हैं। काव्य मंचों का उनका अनुभव व शब्दों के प्रति गहरी पकड़ उनकी कविताओं में स्पष्ट तौर पर झलकती है। भाटी जी की अमिताभ पर लिखी गई मालवी कविता के साथ ही कन्या भ्रूण हत्या पर लिखी कविता भी बेहतरीन थी, जिसका वाचन उन्होंने इस आयोजन में किया था। अपनी जीवनसंगिनी के साथ आयोजन में पधारकर भाटी ने कहीं न ‍कहीं यह जता ही दिया कि उनकी जीवन नैय्या का खैवय्या हमारी भाभी ही है, जिनकी प्यार भरी उलाहना व प्रोत्साहन उन्हें काव्य लेखन को प्रोत्साहित करता है।

चलते-चलते मैं यहाँ बात करूँगी उन खास लोगों की, जिनके बगैर इस आयोजन की चर्चा अधूरी रहेगी। उन खास लोगों में सबसे पहले नाम आता है संजय जोशी जी के अनन्य मित्र व ‘मालवी मिठास’ समूह में ठेठ मालवी बोली की मिठास घोलने वाले मुकेश ठन्ना जी। मुकेश भैय्या साहित्य से प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं जुड़े हैं पर उनकी सा‍हित्यिक रचनाएँ उन्हें दिग्गज कवियों के समकक्ष लाकर खड़ा कर देती है। श्रृंगार में भंगार वाली मुकेश जी की कविता ने इस कार्यक्रम में खूब दादा बटोरी। मुकेश जी के बाद अब जिस कवि का मैं जिक्र करूँगी, उनकी मैं स्वयं ही बड़ी प्रशंसक हूँ। पेशे से पत्रकार व कल्पनाओं से कवि, संजय परसाई जी की कविता में ठेठ मालवी परिवेश के साथ ही सधी हुई लेखनी व गहरे अनुभव की छाप देखने को मिलती है। अपनी बेटी प्रतीक्षा पर लिखी कविता के साथ ही जब संजय जी ने अपनी मालवी कविता ‘चालो, चालो, चालो, सगला तिरबेनी का मेला में ...’ सुनाई। तब अचानक महफिल में मस्ती का रंग चढ़ गया और हर कोई इनके साथ इस कविता के बोल गुनगुनाने लगा। संजय जी की कविता सुनकर यूँ लगा कि हमारे बीच गुमसुम से बैठे रहने वाले इस कवि में जो बात है, वह बात किसी ओर में नहीं।

मैनेजमेंट फंडे के माध्यम से जीवन की गहरी बातों को भी बड़ी आसानी से कहने वाले इप्का लैबोरेटरीज में कार्यरत डी.पी. आंजना जी किसी परिचय के मोहताज नहीं है। महाभारत, हिंदुओं के विविध संस्कार आदि पर आधारित उनके ट्रेनिंग प्रोग्राम इस तरह से डिजाइन कर बनाए गए है कि वह प्रोग्राम लोगों की जीवनशैली व विचारधारा में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की ताकत रखते हैं। इस मंच से आंजना जी ने अपने अनुभव तो शेयर किए ही सही, साथ ही अपने साथी युवाओं को सफलता के गुर भी सिखाए। इप्का लैबोरेटरीज में कार्यरत अंकुर गुप्ता जी व मनीष वैष्णव जी की उपस्थिति भी इस आयोजन में महत्वपूर्ण थी। यहाँ मौजूद हर पुरूष की उपस्थिति उनकी जीवनसंगिनी के साथ के कारण ‘खास’ बन गई थी। पर मुझे एक बात खटक रही थी कि घर में मैनेजमेंट संभालने वाली ये बातूनी महिलाएँ इन आयोजनों में खामोश क्यों रहती है? यदि उनकी सहभागिता भी इन आयोजनों में रहे तो मज़ा दोगुना हो जाएं। आशा है हल्ला-गुल्ला के आगामी आयोजनों में मेरी प्यारी भाभियाँ इस कमी को जरूर दूर करेंगी और आशा है इसकी शुरूआत व्यास जी के घर से होगी।  


हल्ला-गुल्ला साहित्यिक मंच से जुड़ी होने के कारण यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे भी इन विदुषीजनों के साथ कुछ वक्त बिताने का व इनके अनुभवों व मार्गदर्शन से ज्ञानार्जन के साथ ही अपनी लेखनी को एक नई दिशा देने के गुर मिले। मैंने भी अपनी दो कविताओं ‘उड़ने दो मुझे ...’ व ‘पेशावर में पाक रोया ...’ का वाचन इस मंच से किया। इस सफल आयोजन में सांझ के ढ़लने के साथ ही माहौल में मस्ती का रंग और भी तेजी से चढ़ने लगा। पता ही नहीं चला कि वक्त कैसे सरपट गुजर रहा है। 

कार्यक्रम के अंत में डीआरएम ऑफिस में कार्यर‍त इस मंच से जुड़े हमारे साथी अनिल जैन ने आभार प्रदर्शन कर कार्यक्रम के औपचारिक समापन की घोषणा की। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि मालवा में पमणाई में टेम नी देख्यो जाए। अठे तो छोरी ने विदा करे, तो भी गाड़ी रा पछाड़ी-पछाड़ी लोग आधा किलोमीटर तक रोता-रोता पगे चाली जाए। पण यूँ कोनी के, कि अबे हमी हमारा घरे जावा ने थे थाणा घरे जाओ। अणी कारिक्रम में भी लोग तीन मंजिल तक उतरता-उतरता भी एक-दूजा से मलता गिया ने रही सही कसर पूरी करवा वस्ते वाटे खड़ा वई ने फेर मुंडे-मुंडे वाता-चिता करवा लाग्या। कई करा, यो अपणो मालवो है ज असो कि कदी कणी ने दूर जावा रो नी के। हरेक कणी ने यूँ के कि थे अबार मति जाओ। अठे ज रूकी जाओ ...। चलिए जी, आयोजन की इन्हीं मीठी यादों के साथ अब मैं अपनी लेखनी को यही विराम देती हूँ व साथ ही लेखन में हुई किसी भी त्रुटि के लिए अपने साथियों से क्षमा माँगती हूँ। चलते-चलते आप सभी को इस ‘चरकली’ का प्यारभरा  नमस्कार। 

Comments

गायत्री जेसी बेन की लेखनी कमाल है
सबका सूक्ष्म और सटीक की विवेचना एक
महान लेखिका के गुण को प्रदर्शित करते है
हमारी कामना की उतरोतर प्रगति क्र नित नये आयाम छुए .....बहुत -बहुत धन्यवाद
आपरो आभार संजय भई। यो म्हारी लेखनी से अधिक आपरा आयोजन रो कमाल है। कारिक्रम अतरो हऊ थो कि लिखवा में लेखनी आपे आप चालती गई। मह्ने ज्यादा होचवा री जरूरत ज कोनी पड़ी।
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक मंगलकामनायें
बहुत सुन्दर प्रस्तुति .. लिखते रहें ..
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!

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