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Showing posts from October, 2014

‘मलाला’ है तो मुमकिन है ...

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-           गायत्री शर्मा नन्हीं आँखों से झाँकते बड़े-बड़े सपनें। ये सपनें है हिजाब में कैद रहने वाली पाकिस्तानी लड़कियों की शिक्षा के। ये सपनें हैं उन नन्हीं परियों की कट्टर कबिलाई कानून से आज़ादी के, जिनके सपनों में भी कभी आज़ादी की दुनिया नसीब न थी। तालिबानी आतंकियों के खौफ के बीच स्वात की मलाला ही वह मसीहा थी, जिसने डर के आगे जीत की नई परिभाषा गढ़ी। महात्मा गाँधी की तरह मलाला ने ‍भी हिंसा का जबाब अहिंसा से देकर दुनिया को यह दिखा दिया कि जब उम्मीदें हार मान जाती है। तब भी हौंसले जिंदा रहते हैं। यह मलाला के बुलंद हौंसले ही थे, जिसके चलते पाकिस्तानी लड़कियाँ अब लड़कों की तरह शिक्षा हासिल कर रही है। आज हम सभी के लिए यह सम्मान की बात है कि अशांति में शांति का संदेश फैलाने वाली मलाला को शांति के सर्वोच्च पुरस्कार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुना गया है।                 कहते हैं नदी जब उफान पर होती हैं तब वह विशालकाय चट्टानों को भी फोड़ अपना रास्ता बना लेती है। जब मलाला के स्वर भी तीव्र वेग से बुलंद ईरादों के साथ प्रस्फुटित हुए, तब कट्टर तालिबानी फरमानों की धज्जियाँ उड़ गई और स

रहे सलामत मेरा सजना ...

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- गायत्री शर्मा प्रकृति ने विवाहिता के भावों को कुछ ऐसा बनाया है कि उसके हृदय के हर स्पंदन के साथ ‘अमर सुहाग’ की दुआएँ सुनाई पड़ती है। अपने लिए वह किसी से कुछ नहीं माँगती पर ‘उनके’ लिए वह सबसे सबकुछ माँग लेती है। धरती के पेड़-पौधे, देवी-देवताओं के साथ ही ‘करवाचौथ’ के दिन तो हजारों मील दूर आसमान में बैठे चाँद से भी वह अपने दांपत्य के चाँद के दीर्घायु होने की दुआएँ माँग लेती है। करवाचौथ वह शुभ दिन है, जब चाँद से दुआएँ माँगती तो पत्नी है पर उन दुआओं का फल मिलता पति को है। सुहाग की चीजों से सजती तो ‘सजनी’ है पर दमकता उसके ‘साजन’ का मुखड़ा है।        जिस स्त्री को पुरातन काल से हमारे समाज में नवरात्रि में ‘बेटी’ के रूप में, विवाह के समय ‘कन्या रत्न’ के रूप में, शुभ कार्यों में ‘शुभंकर’ के रूप में और तीज-त्योहारों पर ‘सुहागन’ के रूप में पूजा जाता रहा है। वहीं ‘देवी’ रूपी स्त्री अपने सुहाग के सुखमय जीवन को ‘सदा सुहागन रहने के’ शुभाशीष से भरने के लिए देवी-देवताओं को पूजने लगती है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि प्रेम व रिश्तों को निभाने के मामले में महिलाएँ पुरूषों से कहीं अधिक व

कर्फ्यू के सन्नाटें में पुलिस का गरबा

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- गायत्री शर्मा सांप्रदायिकता की दीवारों ने हमारे दिलों में ऐसी दरारे डाल दी है कि जब किसी हिंदू पर आक्रमण होता है तो बगैर सोचे-समझे हम मुस्लिमों पर ऊँगली उठाने लगते हैं और जब किसी मुस्लिम को कोई गोली मार देता है तो हम हिंदूओं पर लाठियाँ लेकर बरस पड़ते हैं। क्या आज धर्म की कट्टरता की हैवानियत हमारी इंसानियत पर इतनी हावी हो गई है कि हर दिन एक साथ रहने और घूमने वाले राम-रहीम दंगों और कर्फ्यू के समय एक-दूसरे को ही मारने पर उतारू हो जाते है? पिछले दिनों मध्यप्रदेश के रतलाम शहर में हुई गोलीबारी की घटना में भी कुछ ऐसा ही हुआ। मुस्लिम और हिंदू नेताओं पर एक ही दिन में दो अलग-अलग स्थानों पर हुए जानलेवा हमला के बाद हमेशा की तरह राजनीति के कीचड़ में पत्थर फेंककर तमाशा देखने वाले छुटपुट नेताओं की राजनीति दम पकड़ने लगी। जिसके चलते भाजपा ने कांग्रेस को आरोपों के कटघरे में खड़ा किया और कांग्रेस भाजपा को। ऐसे में मरण हुआ बेचारे आम-आदमी का, जो दंगा, कर्फ्यू और मारपीट की घटनाओं के कारण अपना रोजगार छोड़ घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गया।        क्या होता है कानून की उन धाराओं की पेचीदगी से, जो आम