गुरू कोई भी हो सकता है। फिर चाहें वह आपका शिक्षक, माता-पिता, बच्चे या मित्र ही क्यों न हो। प्रतिस्पर्धा जीवन में सदैव चलती रहती है। शिष्यों में प्रतिस्पर्धा हो तो अच्छा लगता है परंतु जब गुरू ही बड़े-छोटे की लड़ाई में उलझ जाएँ तो वह गुरू ज्ञान में बड़े होकर भी उदारता में निम्न बुद्धि वाले छोटे हो जाते हैं। मैं कभी गुरू में एकैश्वरवाद का सिद्धांत नहीं मानती। मैं किसी भी एक व्यक्ति को ज्ञान, चरित्र और मानवता के गुणों में उत्कृष्ट नहीं मान सकती। हालांकि इसमें भी कुछ अपवाद होंगे, जो दुनिया की चकाचौंध से दूर हिमालय की कंदराओं में बैठे उस परमपिता परमात्मा से एकाकार करने में ध्यानमग्न होंगे।गुरू, जिसकी हम चरणवंदना कर उन्हें अपने मन मंदिर में पवित्र भावों के साथ भगवान के स्थान पर विराजित करें। वहीं गुरू यदि किसी स्त्री की अस्मिता से खेंले, दूसरे धर्मों का अनादर करें तो उस गुरू की पूजा मैं द्विभाव से डरते-सहमते कैसे कर सकूँगी? कैसे उस गुरू से एकांत में मैं अपने प्रश्नों के समाधान पूछूँगी? कैसे उससे जिरह करूँगी, जो स्वयं पवित्रता की कसौटी पर निम्नतम स्तर पर जा रहा है? इन प्रश्नों का जवाब जिस द...