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Showing posts from December, 2013

चोरी-चोरी कोई आएँ, चुपके-चुपके ...

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‘उमराव जान’ का नवाब सुल्तान, ‘साथ-साथ’ का अविनाश और ‘चश्मेबद्दूर’ का सिद्धार्थ ... आप सभी को याद होगा। इन किरदारों पर गौर फरमाने पर आपके जेहन में एक मुस्कुराता चेहरा आएगा। कशीदाकारी से सजी शेरवानी और नवाबी टोपी के साथ ही गोल-मटोल गालो पर आड़ करते लंबे बालों का उनका वो लाजवाब लुक भूलाएँ नहीं भूलता। अब कुछ याद आया आपको? जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ गुजराती बटेका (आलू) से दिखने वाले गोल-मोल फारूख शेख की, जो कि फिल्म इंडस्ट्री में एक जाना-पहचाना नाम है। फारूख का नाम आते ही हम सबकी ज़ुबा पर दिप्ती नवल का नाम जरूर आता है आखिर हो भी क्यों न, 7 फिल्मों में कमाल-धमाल करने वाली दिप्ती और फारूख की जोड़ी अपने समय की हिट जोडि़यों में शुमार थी। आज भी ताज़ा-तरीन लगने वाले ‘ये तेरा घर, ये मेरा घर ...’, ‘चोरी-चोरी कोई आए, चुपके, चुपके ... ’, ‘नूरी,नूरी ...’ जैसे कई सदाबहार नग़में फारूख पर फिल्माएँ गए थे। बड़े पर्दे के कलाकार फारूख की लाजवाब शक्सियत के जादू से छोटा पर्दा भी अछूता नहीं था। फिल्मों में दिप्ती नवल के साथ प्रेम की मीठी नोंक-झोक कर दर्शकों को गुदगुदाने वाले फारूख छोटे पर्दे पर ‘जीना इसी का

‍न फनकार तुझसा तेरे बाद आया, मोहम्मद रफी तू बहुत याद आया ...

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संगीत सम्राट मोहम्मद रफी की तारीफ में कुछ कहना सूरज को रोशनी दिखाने के समान है। गायन के क्षेत्र में रफी का जो कद है, उसे छू पाना भी आज के दौर के किसी गायक के बस की बात नहीं है। रफी अपने गीतों में जो सालों पहले गुनगुना कर कह गए, वह आज भी ताज़ा तरीन सा लगता है। दिल की गहराईयों से सुने तो रफी के गीतों में पिरोये अल्फाज़ आपकी और हमारी जिंदगी की ही कहानी है, जिसमें प्रेम की मिठास है, मिलन की पुरवाई है, दर्द की कसक है, और प्रेम में ठोकर खाने पर ज़माने से मिली रूसवाई है। प्रेम के युगल गीतों के साथ ही दर्द भरे नगमों में भी दूर-दूर तक रफी का कोई सानी नहीं है। आज भी तन्हाई में रफी के दर्द भरे नग़में विरह की कसक बन हमारी आँखों से आँसू बन छलकते है और हमराज बन हमारे दिल के दर्द को बँया करते हैं। क्या बात हो, जब रात हो, तन्हाई हो और रफी की रूहानी आवाज़ हो। तब रात गुनगुनाते हुए कब बीत जाएगी, आपको पता ही नहीं चलेगा। 24 दिसम्बर 1924 को एक आम इंसान के रूप में जन्म लेने वाला यह फरिश्ता सुरों के मामले में खुदा की विशेष नैमतों से नवाज़ा गया था। रफी के इस जन्मजात हूनर को तराशना व उनके गीतों को सुरो

अपीयरेंस और अदाकारी में लाजवाब टुन टुन

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नौशाद साहब के दरवाजे पर गायिका बनने की गुजारिश के साथ अचानक से दस्तक देने वाली 13 वर्षीय उमा के लिए संगीत की दुनिया के इस अज़ीज फ़नकार के रहमो-करम की इनायत मिलाना खुदा की किसी नैमत से कम नहीं था। बड़ी उम्मीदों के साथ कुछ कर दिखाने का ज़ज्बा लिए उत्तर प्रदेश से मुबंई आई उमा देवी अपनी जिद की बड़ी पक्की थी। तभी तो पहली ही मुलाकात में इस भारी-भरकम जिद्दी लड़की ने नौशाद साहब को ही कह दिया कि यदि उन्होंने उसे गाने का मौका नहीं दिया तो वह समन्दर में कूदकर अपनी जान दे देगी। भविष्य में उसी जिद ने उन्हें बॉलीवुड की चोटी की गायिका और हास्य अभिनेत्री बना दिया। जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ लड्डू से गोल-मटोल चेहरे व हाथी से भारी-भरकम शरीर वाली अभिनेत्री उमा देवी उर्फ टुन टुन की। ‘अफसाना लिख रही हूँ दिले बेकरार का, आँखों में रंग भरके तेरे इंतजार का ...’ फिल्म ‘दर्द’ के इस सदाबहार गीत को अपनी सुरीली आवाज दी थी उमा देवी ने। इसे हम वक्त का फेर ही कहें कि आज भी यह गीत तो हमें यदा-कदा सुनाई दे जाता है लेकिन सीता देवी का जिक्र हमें कभी सुनाई नहीं देता। आखिर क्यों यह बेहतरीन गायिका गायकी छोड़ सदा

लाजवाब हुस्न की मलिका - मीना कुमारी

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तुम क्या करोगे सुनकर मुझसे मेरी कहानी, बेलुत्फ जिंदगी के किस्से है फीके-फीके महज़बीन बानो यानि कि मीना कुमारी का यह श़ेर उनकी जिंदगी की विरानियों का दर्द बँया करता है। फिल्म इंडस्ट्री में ‘ट्रेजेडी क्वीन’ के रूप में अपनी पहचान बनाने वाली मीना कुमारी बेहतरीन अदाकारा के साथ एक उम्दा उर्दू शायरा भी थी। आईने सा उजला लंबा चेहरा और गालों पर अठखेलियाँ करते घुँघराले बाल, शाम के ज़ाम के नशे सी नशीली आँखे और बड़े होठों से आँचल दबाने का वो कातिलाना अंदाज .... कोई इस रूप-लावण्य को कैसे भूल सकता है जनाब? लाजवाब माँसल सौंदर्य से परिपूर्ण ‘पाकीज़ा’ की मीना की संगमरमरी काया ने अपने हुस्न से जलवों से फिल्म के रूपहले पर्दे पर धूम मचा दी थी। जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ 50 व 60 के दशक की उस लाजवाब नायिका की, जिसने ‘साहिब बीबी और गुलाम’ में छोटी बहू के किरदार को अपने उम्दा अभिनय से अमरता प्रदान की थी। मीना कुमारी को फिल्म परिणीता में ललिता, काजल में माधवी, बेजू बावरा में गौरी और साहिब बीवी और गुलाम में छोटी बहू के किरदार के लिए बेहतरीन अभिनेत्री के फिल्म फेयर पुरस्कार से भी नवाजा गया।     य

चाँद मेरा दिल, चाँदनी हो तुम ...

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चाँद, आसमान में चमकता वो श्वेज ज्योतिपुंज है, जिसके रूप-सौंदर्य के आगे सब कुछ फीका है। कहने को तो नासा के वैज्ञानिक चाँद की उबड़-खाबड़ सतह पर गड्ढ़ों का दावा करते है परंतु इसी गड्ढ़ों वाले चाँद पर प्रेमियों के प्रेम की गाड़ी बेरोकटोक सरपट दौड़ती है। चाँद में कितने भी ऐब हो परंतु प्रेमियों के लिए वह अपने खूबसूरत और वफादार साथी की तरह बेऐब है क्योंकि जहाँ प्यार होता है, वहाँ पसंद होती है और जहाँ प्यार और पसंद दोनों होती है वहाँ प्रेम की प्रगाढ़ता के आगे हर ऐब गौण हो जाता है। जिस चाँद से प्रेमी हर रोज घंटों बतियाते हैं, उस पर जब घर बसाने की बात हो तो प्रेमी भला कैसे पीछे रह सकते हैं? नासा की चाँद पर घर बसाने की संभावनाओं ने तो प्रेमियों को असल में चाँद पर जाने की नई उम्मीदें दी है। जब ऐसा होगा तो वाकई में प्रेमी का दिल गा उठेगा ... ‘चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो’।यह आसमान में चमकने वाला चाँद ही है, जिसकी सुनहरी चाँदनी में नहाकर प्रेमी प्रेम की अगाध गहराईयों में खो जाते हैं। घंटों तक प्रेमिका का हाथ थामे अपलक चाँद को निहारना, प्रेमिका के लिए चाँद तोड़कर ज़मी पर लाना, चाँद की

60 के दशक का चॉकलेटी ब्वॉय : जॉय

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वो 60 का दशक था, जब मासूम चेहरे पर मंद-मंद मोहक मुस्कुराहट और दिल में प्यार की कशिश लिए फिल्मों के रूपहले पर्दे एक चॉकलेटी ब्वॉय की धीमी दस्तक हुई। उनके चेहरे की मासूमियत, गोरे चिकटे चेहरे पर हिरण सी बड़ी-बड़ी आँखे, लाजवाब केश सज्जा और कातिल मुस्कुराहट ने जैसे दर्शकों को उनके आकर्षण जाल में मजबूती से बाँध दिया। जॉय को देख बस घंटों तक उन्हें निहारने को ही मन करता था। उनकी प्रशंसक लड़कियाँ तो टेलविजन पर अपने इस हीरों को अपलक निहारती ही रहती थी। वाकई में एक अजीब सा जादू था मासूमियत से भरपूर उस चेहरे में, जिसे देख लड़कियों का मोहित होना लाजिमी ही था। जॉय की बेहतरीन अदाकारी के कारण उनकी फिल्मों से ..., तो कई बार जॉय की खूबसूरती के कारण उनसे और परोक्ष रूप से उनकी फिल्मों से दर्शकों को प्यार होने लगा। साधना, वहिदा रहमान, वैजंती माला जैसी मशहूर कमसीन अभिनेत्रियों के साथ फिल्मों प्रेम के गीत गाने वाले इस रोमांटिक हीरों के खाते में लव इन टोकियों, शार्गिद, जिद्दी, फिर वहीं दिल लाया हूँ, आओ प्यार करें, ईशारा और एक मुसाफिर एक हसीना जैसी कई फिल्में थी।     बॉलीवुड का छैला कहलाने वाले जॉय

चल, उठ, दहाड़ निर्भया ...

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16 दिसंबर 2012, इतिहास के पन्नों पर बदनामी की कालिख पोतने वाला वह दिन, जिसने वैश्विक पटल पर शर्मिन्दगी व आलोचना से भारत के दामन को दागदार कर दिया। ऐसा पहली बार हुआ, जब दिल्ली की निर्भया की दर्द भरी चीत्कारों ने पूरे देश को भावुक कर दिया। उस लड़की की सिसकीयों भरी आह की कल्पनामात्र से ही कठोर से कठोर माँ का कलेजा भी मुँह को आ जाता था। अपनी लाडली से प्रेम करने वाला हर बाप कठोरता के आवरण में भावुकता से भरे भारी मन से निर्भया में अपनी बेटी की झलक पा रहा था। 16 दिसंबर की काली रात को कभी न सोने वाली दिल्ली की खचपच सड़कों पर अतृप्त वासनाओं की दरिंदगी का खेल सरेआम खेला गया और इस खेल में लात-घूस के साथ लौहे की सख्त रॉड से कुचली गई एक मासूम बेटी निर्भया। जब तक इस निर्भया के धड़कते दिल और उम्मीद की सिसकियों का तालमेल चलता रहा। तब तक न्याय की उम्मीद भी रह-रहकर इस लाडली में दम भरती रही। उसके बाद तो सासों के तार टूटने के साथ ही जिंदगी जीने का निर्भया का सुखद स्वप्न भी सदा के लिए उसकी मूँदती आँखों में कैद हो गया और सदा के लिए फिजाओं में शेष रह गई यह गूँज ‘माँ, मैं जीना चाहती हूँ’ ।     इंस

तुम पुकार लो, तुम्हारा इंतजार है ...

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कुछ गीत ऐसे होते हैं, जिन्हें हम कभी भी, कही भी, किसी के भी साथ गुनगुनाने लगते हैं लेकिन इसके उलट कुछ गीत ऐसे होते हैं, जिन्हें गुनगुनाने के लिए हम और हमारी तन्हाई का साथ ही काफी होता है। लफ्ज़ों के अधरों से फिसलकर दिल में प्रेमिल भावनाओं की जलतरंग छेड़ने वाला संगीत हेमन्त कुमार का हैं, जिनके मधुर संगीत से सजे गीतों के अल्फाज़ कानों में पड़ते ही बसबस हमारे होंठ इन गीतों को गुनगुनाने लगते हैं, हम अपनी मस्ती में झूमने लगते है और खो जाते हैं अपने प्रियतम की यादों में। आनंदमठ, अनुपमा, साहिब, बीबी और गुलाम जैसी कई फिल्मों को अपने संगीत से सजाने वाले हेमन्त दा संगीतकार के साथ ही एक बेहतरीन गायक भी थे। हम बात कर रहे हैं हेमन्त कुमार यानि कि हेमन्त कुमार मुखोपाध्याय की। 16 जून 1920 से शुरू हुआ     मौसिकी के इस बादशाह का सफर 26 सितंबर 1989 को खत्म हो गया। जीवन के इन 69 वर्षों में हेमन्त कुमार ने अपने रूहानी संगीत व गीतों के सुरूर से प्रेमियों को सरोबार कर दिया। हेमन्त दा की गायकी में जहाँ प्रेम की मिठास का जादू देखने को मिलता है, वहीं उनके दर्द भरे गीतों में विरह की तीखी चुभन का भी अहसा

मेरी हठ और तेरा इंकार

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मेरी हठ और तेरा इन्कार  कब तक चलेगा मेरे यार ? दोस्ती में हक की दरकार  और हक जताने पर तकरार  कब तक चलेगा मेरे यार ?  सोच में परिपक्व होने पर भी  बच्चों सी हठ और मनुहार  कब तक चलेगा मेरे यार?  समझते हो तुम भी और मैं भी  फिर भी झूठ-मूठ का इन्कार  कब तक चलेगा मेरे यार?  - गायत्री 

समलैंगिक संबंधों की खिलाफत क्यों?

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कहते हैं जहाँ बंदिशे अधिक होती है। वहाँ बँधनों को तोड़ने की दरकार भी उतनी ही तीव्र होती है। बात ठीक वैसे ही है, जैसे कि प्रेम संबंधों व प्रेम विवाह की खिलाफत करने वाले समुदायों में सबसे अधिक प्रेम संबंध व ऑनर किलिंग के मामले देखने को मिलते हैं। ऐसे ही समुदायों में सामाजिक रिश्तों के प्रति विरोध  सबसे अधिक   देखा जाता है। समलैंगिक संबंधों को ‘अप्राकृतिक हरकत’ करार देकर उसे गैरकानूनी बताने वाले देश की सर्वोच्च अदालत के समलैंगिक संबंधों के मामले में लिए गए फैसले का भविष्य भी कुछ इसी ओर ईशारा कर रहा है। वर्ष 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) खत्म कर मर्जी (आपसी सहमति) से समलैंगिक संबंध बनाने को अपराध मानने से इन्कार कर दिया था। लेकिन अभी कुछ दिनों पहले आए देश की सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को एक सिरे से खारिज कर दिया। जिसके अनुसार धारा 377 संवैधानिक है और समलैंगिक संबंध दण्डनीय अपराध की श्रेणी में आते हैं। हालांकि कोर्ट का यह फैसला शायद समाज की उस सकुंचित मानसिकता का परिचायक कहा जा सकता है। जिसमें किसी भी परिवर्तन या नई च

जय हो झाडू माता की ...

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बच्चों के पसंदीदा हैरी पॉर्टर की तरह केजरीवाल ने भी अपनी झाड़ू का जादू दिखाकर सबको चौंका दिया है। इस बार दिल्ली की सड़कों पर उनकी झाड़ू ऐसी चली कि कमल के साथ-साथ पंजा भी उनके डस्टबिन में चला गया। किस्मत के धनी केजरीवाल पहली बार में ही शीला के सुहाने सपनों को तोड़कर और हर्षवर्धन को मायूस छोड़कर ‘आप’ के साथ बस अपनी ही बल्ले-बल्ले कर रहे हैं। सच कहें तो यह झाड़ू का कमाल है। जिसकी झाड़-फूँक ने राजनीति के सालों पुराने धुंरधरों को भी हकीकत का आईना दिखा दिया। जय हो झाडू माता की ...।   जिस तरह खेल-खेल में कुछ जिद्दी बच्चे यह कहते हैं कि मुझे भी खिला लो , नहीं तो मैं तुम्हारा खेल बिगाड़ दूँगा। दिल्ली की राजनीति के खेल में बच्चों सी वहीं जिद व अडि़यलपना केजरीवाल ने भी दिखाया और उसी जिद के बूते पर आज वह कांग्रेस को पछाड़ते हुए 28 सीटों पर पैर पसारकर बैठ गए है। सच कहे तो मोदी की तरह केजरीवाल की भी किस्मत लाजवाब है। जिसने हर किसी को उनकी ही लहर में झूमने पर मजबूर कर दिया है। दिल्ली में ‘आप(आम आदमी पार्टी)’ को स्पष्ट जनादेश न मिलने के बावजूद भी उनके साथ सीटों का गणित इतना लाजवाब बैठा कि क

खिलने लगा है कमल ...

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मध्यप्रदेश में पूरी तरह खिला कमल राजस्थान में सर आँखों पर बैठाया जाएगा   धान के कटोरे (छत्तीसगढ़) में जब जा बैठेगा यह कमल  तो यह दिलवालों की दिल्ली में जाकर 'आम' के साथ भी इठलाएगा। - गायत्री (विधानसभा चुनाव 2013-14 के संदर्भ में)   

'संजय' से सहानुभूति क्यों ???

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कहा जाता हैं कि इस देश का कानून सबके लिए समान है फिर चाहे वह वीआईपी हो या आम आदमी। यदि हम कानून की विशेषता की बात करें तो भारतीय कानून कठोरता के साथ लचीलेपन के गुण को भी लिए हुए है। यानि जहाँ कानून को सख्त होना चाहिए। वहाँ उसे सभी के साथ सख्त होना चाहिए और जहाँ कानून को लचीला होना चाहिए वहाँ सभी के लिए होना चाहिए फिर चाहे कोई वीआईपी हो या आम आदमी। लेकिन अपराधी अभिनेता संजय दत्त के मामले में कानून का भेदभावपूर्ण रवैया तो ‍कानून के औचित्य पर ही सवालिया निशान लगा रहा है। 1993 में मुंबई सिरियल ब्लॉस्ट के दोषी संजय दत्त को कम समय अंतराल में दूसरी दफा पैरोल पर छोड़ा जाना कितना उचित है जबकि इसी मामले में सजा काट रही जेबुन्निसा की पैरोल की अर्जी को एक सिरे से खारीज कर दिया गया? क्या जेल में भी संजय दत्त को सेलिब्रिटी होने का अच्छा-खासा फायदा मिल रहा है?         अपराध अगर आम आदमी करे तो वह अपराधी और अगर कोई खास आदमी (वीआईपी या सेलिब्रिटी) करे तो वह अपराधी नहीं, यह बात सुनने में बड़ी ही अटपटी लगे परंतु यहीं सच है। आज कई आम आदमी जेल में कैदी के रूप में अपने द्वारा किए गए अपराधों की सजा काट

भर दें फिर हुंकार, मचा दे हाहाकार

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जब कोई बेजुबान पक्षी किसी गिद्ध का शिकार बन जाता है तो वह उस पक्षी को तब तक अपनी नुकीली चोच से नोंचता है, जब तक कि उसके प्राण जिंदा रहने की अंतिम कोशिश से भी हार न मान ले। अब लाश में तब्दील हुए पक्षी को चीरने-फाड़ने की कार्यवाही की जाती है। जिसके लिए उस विशेष समुदाय के पक्षियों का दल मिलजुलकर अपनी चोच से लाश के रूप में माँस के उस लौंदे को नोंच-नोंचकर छलनी सा पारदर्शी बना देते है। लेकिन इतने पर भी उन भूखे जानवरों की भूख नहीं मिटती। वह सब अपने-अपने तरीके से लाश के माँस को नोंचते हुए चटखारे लेकर उसका भक्षण करते हैं। आप इसे क्या कहेंगे भूख की तृप्ति, हवस या और कुछ? यह तो बात हुई जानवरों की, जिनका स्वभाव ही कमजोर को डराकर उस पर शासन करना या उसे मारकर उसका भक्षण करना होता है। चलिए इस विभत्स दृश्य की कल्पना करने के बाद हम बात करते हैं आपके और मेरे मतलब की, यानि कि इंसानों की। पिछले कई महिनों से कभी किसी भगवावस्त्रधारी तो कभी किसी श्वेत वस्त्रधारी पर नाबालिग लड़कियों व महिलाओं के साथ ज्यादती करने के मामले उजागर होते जा रहे हैं। यह सब देखकर ऐसा लगता है कि जैसे आरूषि के बाद खामोश हो