कही शर्म न हो जाएँ शर्मसार
विचारों में खुलापन होना समय की माँग है पर जब विचारों का खुलापन शरीर पर आ जाता है तब इसे आजादी या खुलापन नहीं बल्कि ' अश्लीलता ' कहना ही उचित होगा। कहते हैं व्यक्ति के परिवार में जब तक संस्कार जीवित रहते हैं। तब तक संस्कारों व मर्यादा का आवरण उसे हर बुराई से बचाता है। लेकिन जब अच्छाइयों पर आधुनिकता का भद्दा रंग चढ़ता है तब संस्कार , मर्यादाएँ , प्रेम , विश्वास सब ताक पर रख दिया जाता है। पश्चिम की तर्ज पर खुलेपन की कवायद करने वाले हम लोग अब ' लिव इन रिलेशनशिप ' और ' समलैंगिक संबंधों ' का पुरजोर समर्थन कर विवाह नामक संस्कार का खुलेआम मखौल उड़ा रहे हैं। आखिर क्या है यह सब ? यदि यह सब उचित है तो फिर माँ-बेटी , ससुर-जमाई , बाप-बेटा , बहन-बहन यह सब रिश्ते तो ' समलैंगिक संबंधों ' की भेट ही चढ़ जाएँगे और हमारा बचा-कुचा मान-सम्मान किसी के घर में उसके बेडरूम तक दखल कर ' लिव इन रिलेशनशिप ' के रूप में चादरों की सिलवटों में तब्दील होकर शर्मसार हो जाएगा। यदि ऐसा होता है तो भारत जल्द ही ब्रिटेन बन जाएगा। जहाँ 7 से 8 वर्