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Showing posts from September, 2010

श्राद्ध पक्ष में दीपावली

आज हमारा 60 वर्षों का इंतजार खत्म हुआ और माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद हम सभी ने मानो राहत की सास ली है। इस निर्णय के पूर्व व पश्चात पुलिस प्रशासन की सख्त चौकसी व हर चौराहे पर बड़ी मात्रा में मौजूदगी काबिलेतारीफ व आमजन की सुरक्षा के लिहाज से बहुत ही अच्छी थी। एक लंबे इंतजार के बाद आए इस फैसले पर अफवाहों का बाजार काफी पहले से गर्म था पर फिर भी लोगों को यह विश्वास था कि न्यायालय का जो भी निर्णय होगा वह निसंदेह ही दोनों पक्षों की भावनाओं को ध्यान में रखकर ही लिया जाएगा और वैसा ही हुआ भी। जहाँ तक एक पत्रकार होने के नाते मैंने लोगों से इस विषय पर चर्चा की तो उनका यही कहना था कि अयोध्या में मंदिर बने या मस्जिद, उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। वे तो बस यही चाहते है कि फैसला जल्द से जल्द व दोनों समुदायों की धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखकर लिया जाए। सच कहूँ तो अब आम आदमी भी ऐसे मुद्दों पर कट्टरवादिता दिखाकर या तोड़-फोड़ कर अपना समय व जन या धन की क्षति करने के जरा भी मूड में नहीं है। अब वो दिन गए जब लोग लड़ाई झगड़े करने की फिरात में घुमा करते थें। कुछेक शरारती तत्वों को छोड़कर हर क

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना

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जात-पात, धर्म-मजहब हम हमें अलगाववाद या एकेश्वरवाद नहीं सिखाता है। याद रखें कोई मजहब कभी कट्टरपंथिता नहीं लाता। हमें कट्टरपंथी तो हमारी सोच बनाती है। जो मंदिर और मस्जिद में दूरियाँ बढ़ाती है। गीता कभी मुस्लिम को बैरी बनाने का और कुरान कभी हिंदु को मार गिराने का संदेश नहीं देती है। यह सब हम अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए करते है और अल्लाह और राम के नाम को कलंकित करते है। क्यों नहीं हम ऐसे समाज की कल्पना करते है। जहाँ मं‍दिर में अज़ान और मस्जिद में आरती हो? ऐसा समाज हकीकत में भी बन सकता है। बस जरूरत है तो थोड़ा नम्र होने की व अपनी कट्टरपंथिता छोड़ने की। - गायत्री शर्मा चित्र हेतु साभार : देवेंद्र शर्मा, रतलाम

16 सिंतबर 'युवा' प्रथम पृष्ठ

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16 सिंतबर 2010 का नईदुनिया 'युवा'

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प्रति गुरूवार सुबह-सुबह आपके घर आकर दस्तक देना और आपके साथ गरमा-गरम चाय पीना मुझे बड़ा अच्छा लगता है। पर क्या यह सोच दुखी भी होती हूँ और खुश भी कि मेरी जगह मेरी कलम आपसे मेरी पहचान कराती है और आपकी अच्छी बुरी प्रतिक्रियाओं को मेरे दफ्तर लेकर आती है। आप सभी पाठक ही मेरी कलम की ताकत है। जो लिखने की मेरी ऊर्जा को बढ़ाते हैं। यदि युवा का जिक्र निकला ही है तो क्यों न पढ़ ली जाए 16 सितंबर 2010 नईदुनिया युवा में प्रकाशित मेरी स्टोरियाँ। एक ओर बात कि मुझे आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा। - गायत्री शर्मा

जब होने लगे मंदिरों में अजान

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कैसा लगे जब हिंदु करे अजान और मुस्लिम गाए आरती जब हम सभी रहे मिलजुलकर और प्रेम बने जीवनरथ का सारथी जब एक सी ऑक्सीजन हम सभी के दिल को है धड़काती तब जाति-धर्म के नाम पर हमारी सांसे क्यों है घुट जाती? क्यों नहीं मक्का शरीफ को गंगा जल की धार है पावन बनाती ? अल्लाह नहीं कहता हमें मस्जिद से बाहर जाने को पर इंसान बन अल्लाह कह जाता है हिंदू को मुस्लिम बन जाने को मंदिरों की घंटियाँ मुस्लिम की इबादत पर भी सुनाई आती है पर पुजारी की पूजा की आरती कभी मस्जिद में क्यों नहीं जाती है? बहुत से प्रश्न अब तक है अनुत्तरित जिन्हें अब सुलझना चाहिए मुस्लिम के मुँह से गीता और हिंदु के मुँह से 'अल्लाह हो अकबर' अब तो निकलना चाहिए 'मौन'या 'हिंसा'नहीं है किसी समस्या का हल प्रेम और भाईचारा ही है अब सुलह का एक विकल्प आओं करे एक ऐसे देश की कल्पना जहाँ हर घर में मस्जिद,मस्जिद, गुरूद्वारा हो ईद की मीठी सेवईयाँ के दूध में गणेश चतुर्थी के मोतीचूर के लड्डू का मसाला हो - गायत्री शर्मा

शिक्षक दिवस विशेष 'नईदुनिया युवा' इंदौर

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गुरु और शिष्य के बीच का रिश्ता इतना मधुर होता है कि उसमें शब्दों की बजाय मौन ही सबकुछ कह जाता है। गुरू के मौन में गुरु की गुरुता, उसका ज्ञान, उसका अनुभव और शिष्य की कामयाबी में गुरु की झलक और शिष्य की मेहनत स्वत: ही दिखाई पड़ती है। इस रिश्ते का बखान करने के लिए न तो कोई झूठी तारीफ के शब्द चाहिए और न ही कोई महँगे उपहार। गुरु का दिल तो शिष्य के मन में उसके प्रति सम्मान और शिष्य की कामयाबी को देख ही गद्गद हो जाता है। गुरु भी स्वयं को तभी धन्य समझता जब उसका शिष्य दुनिया में अपने अच्छे कार्यों से गुरु के नाम को रोशन करता है। गुरु शिष्य के बीच समझ और सहयोग के इसी रिश्ते पर आधारित मेरी कवर स्टोरी है 2 सितंबर के नईदुनिया युवा में। कृपया इस स्टोरी को पढ़ मुझे अपने फीडबैक अवश्य दें। आप इस समाचार पत्र को www.naidunia.com पर लॉग इन 'युवा' वाले बॉक्स पर क्लिक कर भी पढ़ सकते हैं। - गायत्री

याद आती है माँ

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आज फिर से कसक उठी है मन में और हुआ है जीने-मरने के बीच द्वंद्व जीवन कहता है मैं तुझे तिल तिल खाऊँगा मौत का सौदागर कहता है करले मेरा आलिंगन मैं तुझे दु:खों से मुक्ति दिलाऊँगा .... कभी तो लगता है क्या इन संघर्षों का अंत होगा या फिर अंत होगा रात दिन दु:खों की सिसकियों का दोनों का मुझे कोई अंतिम छोर नजर नहीं आता है इसी बीच मेरे भीतर बैठा दिल कसमसाता है लेकिन दु:ख की घडि़यों में भी कोई ऊर्जा दे जाता है मेरे आँसूओं को पौछता मुझे माँ का झीना आँचल नजर आता है जो मुझमें फिर से जीने का जोश जगाता है सच कहूँ तो दु:ख में हमेशा माँ का चेहरा ही मुस्कुराता नजर आता है। मेरी प्रेरणा मेरी माँ है,जिसके संघर्ष ही मेरी ऊर्जा है ‍जिसकी खुशियाँ ही मेरे जीवन की सार्थकता सच कहूँ तो दोस्तों,जब जब भ‍ी यह दुनिया मुझे सताती है तब तब मुझे माँ की शीतल गोद नजर आती है। - गायत्री शर्मा