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धरा का बांसती स्वर

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  - डॉ. गायत्री शर्मा  बसंत प्रेम और सौंदर्य का पर्व है, जब मानव मन के साथ ही प्रकृति भी अनुपम सौंदर्य से पल्लवित हो जाती है। जब चारों ओर के नज़ारे खुशनुमा होते है तब हमारा दृष्टिकोण भी स्वतः ही सकारात्मक हो जाता है। पुष्पगुच्छ से लदे पौधे, आम की नाजुक डालियों से निकलते बौर और महुए की मादकता से मदमाती प्रकृति मानों हमें भी प्रेम के प्रेमिल बंधनों की अनुभूतियों का आनंद लेने के लिए आकर्षित करती है। इस ऋतु में चहुओर आनंद, उमंग और सौंदर्य का समागम समूची सृष्टि में जीव और जगत का एकाकार कर उन्हें एक राग और एक लय में पिरो देता है।  अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी कविता में बंसत के सौंदर्य का बखूबी वर्णन किया है-  टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर, पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर  झरे सब पीले पात, कोयल की कुहुक रात  प्राची में अरूणिम की रेख देख पाता हूं गीत नया गाता हूं   बसंत नवसृजन का उत्सव है। मां वीणावादिनी की आराधना के साथ ही हम इस दिन से नव का आरंभ करते है। प्रकृति के पीत रंग में रंगकर हम भी स्वयं को उसके एक अंश के रूप में स्वीकार्य करते हैं। ऋतु परिवर्तन से दिनचर्या परिवर्तन के इस उत्सव मे

कल प्रेम आया था ...

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कल रात स्वप्न में हुआ प्रेम से साक्षात्कार वह बड़ा घबराया सा हैरान-परेशान था प्रेम बोला - तू बता मैं क्या करूँ ? जमाने वाले मेरे पीछे पड़े हैं प्रेम का नामोनिशां मिटाने पर अड़े है ऐसे में बस तू ही मेरा प्यारा है अब मुझे तेरा ही सहारा है। संर्कीणता के सवालों में उलझाकर कानून की हथकडि़याँ लगाकर रिश्तों की बेडि़यों में बाँधकर गतिबाधित कर देंगे मेरी समाज के ठेकेदार ऐसे में तू बता मेरी प्रिये मैं कैसे करूँगा तुझे प्यार? गर ना रहा मैं तो ज़माना यह समझ जाएगा कहेगा वह प्रेम डरपोक था आज आया है कल चला जाएगा। मेरा हश्र देख कोई भी न करेगा प्रेमियों की वफा पर ऐतबार फिर कोई प्रेमी न करेगा शाहजहाँ-मुमताज़ और हीर-राँझा के अमर प्रेम के उदाहरणों की बात। मैंने कहा- प्रेम! संघर्ष ही तेरा जीवन है तू बढ़ता चल , पीछे मुड़कर मत देख मरने से तू क्यों घबराता है? तेरे जीने की जिजिविषा तुझे मौत के मुँह से भी खींच लाएँगी तेरी हिम्मत के आगे तो संर्कीणता की सौ बेडि़याँ भी टूटकर बिखर जाएगी। तेरी हिम्मत के आगे तो संर्कीणता की सौ बेडि़याँ

मेरे दिवा स्वप्न

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नैन झरोखें में बसे, मेरे दिवा स्वप्न कर ले आलिंगन मेरा, फिर मना जश्न अश्रुधार में भीगते- भागते, मेरे दिवा स्वप्न प्रेम नगर में ले चल मुझे, फिर मना जश्न नैन झरोखें में बसे मेरे दिवा स्वप्न पल-पल रूठते, मेरे दिवा स्वप्न नैनों से दिल में जा बस, फिर मना जश्न नैन झरोखें में बसे, मेरे दिवा स्वप्न स्वप्नदृष्टा बनाते मुझे, मेरे दिवा स्वप्न प्रेमस्वरूपा बना मुझे, फिर मना जश्न नैन झरोखें में बसे, मेरे दिवा स्वप्न - गायत्री 

तेरे साथ हर क्षण है सुखद

तेरा आना भी सुखद, तेरा जाना भी सुखद तेरा जीतना भी सुखद, तुझसे हारना और सुखद खुशी का हो या ग़म का, हर क्षण जिसमें तू साथ है वह क्षण है, सुखद, सुखद और भी सुखद । - गायत्री 

तुम कैसी हो ?

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मुट्ठी से फिसलती रेत सी चंचल कभी शांत जल सी गहन गंभीर तपती धूप में कराती हो तुम सुकून का अहसास लबों पर खामोशी आँखों से करती हो बातें अब समझने लगा हूँ मैं भी   इन ठगोरे नैनों की बानी   तुम्हारी अदाएँ इतनी प्यारी है अब बता भी दो प्रिये! तुम कैसी हो? - गायत्री  

क्या तू छलावा है?

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तू छलावा है या सच की आड में झूठ ज्यादा है हकीकत को झुठलाने का एक सच्चा सा लगता झूठा वादा है क्या सचमुच तू छलावा है? आँखे बंद करूँ तो सामने आ जाएँ खुली आँखों में दूर खड़ी मुस्कुराएँ तेरी कल्पनाओं में जिंदगी का मजा कुछ ओर ही आता है क्या सचमुच तू छलावा है? नींदे, यादें, सब कुछ तू ले गई जाते-जाते मीठी यादों का सहारा दे गई तेरी बातों को सोचकर तेरी तरह होंठ हिलाना मुझे बड़ा भाता है क्या सचमुच तू छलावा है? मेरी स्वप्न सुंदरी काश तू सामने होती कह देता मैं तुझे अपने दिल की बात हकीकत में तुझे अपना बना लेता फिर कहता कि तू छलावा नहीं मेरा साया है क्या सचमुच तू छलावा है? -           -  गायत्री 

औरत का सच्चा रूप है माँ

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बचपन में लोरियाँ सुनाती माँ हर आहट पर जाग जाती माँ आज गुनगुनाती है तकिये को लेकर भिगोती है आँसू से उसे बेटा समझकर स्कूल जाते समय प्यार से दुलारती माँ बच्चे के आने की बाट जोहती माँ अब रोती है चौखट से सर लगाकर दुलारती है पड़ोस के बच्चे को करीब बुलाकर कल तक चटखारे लेकर खाते थे दाल-भात को और चुमते थें उस औरत के हाथ को आज फिर प्यार से दाल-भात बनाती है माँ बच्चे के इंतजार में रातभर टकटकी लगाती माँ लाती है 'लाडी' बड़े प्यार से लाडले के लिए अपनी धन-दौलत औलाद पर लुटाती माँ आज तरसती है दाने-पानी को यादों और सिसकियों में खोई रहती माँ लुटाया बहुत कुछ लुट गया सबकुछ फिर भी दुआएँ देती है माँ प्यार का अथाह सागर है वो औरत का सच्चा रूप है माँ औरत का सच्चा रूप है माँ .... - गायत्री शर्मा (यह कविता मेरे व्यक्तिगत ब्लॉग aparajita.mywebdunia.com पर 11 मई 2009 को पोस्ट की गई थी।) मेरी यह कविता आपको कैसी लगी, आपके विचारों से मुझे अवश्य अवगत कराएँ।