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Showing posts from June, 2014

स्वामी के मन में कब बसेगा साँईं ?

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कहते हैं सत्ता, पद, स्त्री और माया का मोह छोड़े नहीं छुड़ता। यह मोह जब अति की सीमाएँ लाँघ जाता है तो व्यक्ति की बुद्धि विपरीत हो जाती है और प्रकाण्ड से प्रकाण्ड ज्ञानी मनुष्य भी विक्षिप्तों की तरह व्यवहार करने लगता है। इसी को ‘विनाशकाले विपरित बुद्धि’ भी कहा जाता है। हिंदुओं के सम्माननीय धर्मगुरू स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी का शिर्डी के साँईबाबा पर दिया विवादास्पद बयान कुछ इसी प्रकार की मानसिकता व ज्ञान के अतिरेक का परिचायक है। जिसके चलते आज उनकी नम्रता व शिष्टता धर्म की संर्कीण अलमारी में कैद होकर बौखलाहट व झुंझलाहट के रूप में सामने आ रही है। धर्म व आध्यात्म के प्रति लोगों की आस्था जागृत करने वाले धर्मगुरू का साँईबाबा व गंगास्नान के वर्जन पर दिया गया बयान उनकी बौखलाहट व ज्ञान के दंभ व बौखलाहट के अलावा और कुछ नहीं है। जब ईश्वर और प्रकृति जीव मात्र में जात-पात व रंग-रूप का भेदभाव नहीं करती तो आप और हम इस विभेद को जन्म देने वाले कौन होते हैं, क्या हम ईश्वर से भी बड़े है या बड़े होने का नाटक कर महान बनना चाहते है? हम वहीं लोग है, जो सड़क पर पड़े पत्थर को भेरू मानकर, पेड़ को ईश्वर क

तू ही है ...

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न चाहते हुए तेरे आकर्षण की तीव्रता नाकाम कर देती है मेरे प्रतिकर्षण को चाहता हूँ कर दूँ तुझे दिलवालों की फेहरिस्त से अलग पर तू है कि बार-बार सबको पछाड़कर अव्वल नंबर पर आ जाती है मन में जलती क्रोध की आग तेरे दीदार मात्र से शांत हो जाती है तुझे 'खड़ूस' कहूँ या कहूँ मल्लिका-ए-हुस्न सौंदर्य की हर उपमाओं में मुझे तू ही तू नज़र आती है प्रेम में राधा का रौद्र में काली का और वात्सल्य में तू यशोदा का रूप धर आती है मेरे ख्वाबों की परी सपनों में रोज तू आती है पर आँख खुलते ही क्यों ओझल हो जाती है? चाहता हूँ कर लूँ कैद तुझे प्रेमाकर्षण की मुट्ठियों में बना दूँ एक आशियाना मोहब्बत का दिल में प्रेमनगरी के अंदर करूँगा हरक्षण तेरी पूजा तेरे सिवा कोई न होगा मन मंदिर में दूजा तेरे सिवा कोई न होगा मन मंदिर में दूजा ....।   - गायत्री 

लिखूँ तो क्या लिखूँ

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लिखूँ तो लिखूँ क्या तेरा नाम या तेरे नाम कोई पैगाम? प्रेम लिखूँ, प्रियतम लिखूँ या लिखूँ प्राणनाथ? कुछ न लिखूँ तो कोरे कागज पर ही लिख दूँ तुझे 'तू है मेरी जान' तू ही बता तारीफों के पुल बाधूँ या लगा दूँ तुझ पर मेरी नाफरमानी का इल्जाम? कह दे तू तो खामोशी से बन जाऊँ मैं तेरी गुलाम फूल भेजूँ, गुलदस्ता भेजूँ या भेज दूँ लिखकर मेरा नाम? इत्र लगाऊँ, रंगों से सजाऊँ या लगा लूँ सीने से यह पैगाम तू ही बता कैसे भेजूँ तुझे पैगाम? - गायत्री 

अक्षय आमेरिया की रेखाओं की दुनिया

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आज महाकालेश्वर की नगरी उज्जैन में कदम रखते ही मेरी मुलाकात लकीरों से जिंदगी के विविध रंगों के चित्र उकेरने वाले चित्रकार श्री अक्षय आमेरिया जी से हुई। जिस प्रकार के केशों से प्रकृति ने आमेरिया जी के सिर को श्रृंगारित किया है। वह केश इस प्रतिभावान कलाकार का परिचय देने के साथ ही उनकी कल्पनाशीलता को भी अभिव्यक्त करते हैं। घुँघराले केशों की तरह इस चित्रकार की जिंदगी भी लकीरों के विविध आकारों से गुजरती हुई जीवन के विविध पक्षों व भावों को कैनवास के आईने पर प्रतिबिंबित करती है। कहते हैं कलाकार का कमरा मंदिर के समान पवित्र होता है। वहाँ पड़ी चीज़ों से उसकी कल्पनाशीलता व सृजनात्मकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। अक्षय जी की कल्पनाओं को अभिव्यक्ति देने वाले कमरे में इस कलाकार के सपने इधर-उधर अलग-अलग आकारों में टंगे व बिखरे नज़र आते हैं, जिन्हें फुरसत में जोड़-जोड़कर अक्षय जी एक बोलता चित्र कैनवास पर बनाते हैं। आमेरिया जी के साथ उनके निवास पर हुई मुलाकात मुझे चेहरों, भावों व विविध आकारों की उस दुनिया में ले गई। जहाँ एक सीधी सी लकीर भी अर्थपूर्ण होती है। अक्षय जी की हाथों से फिसलकर वह साधारण सी

मोदी पर केंद्रित मेरी कविता

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माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर केंद्रित मेरी कविता आप जरूर पढ़े अ अपनी प्रतिक्रियाओं से मुझे अवगत कराएँ। मेरी यह कविता उज्जैन से प्रकाशित सांध्य दैनिक अखबार 'अक्षरवार्ता' में भी दिनांक 29 मई 2014 को परकाशित हुई है। - नमो-नमो छा गया गर्जना प्रचंड है हौंसले बुलंद है देखकर अंचभ है ये कौन सत्ता के सूने गलियारों को गूँजा गया? नमो-नमो छा गया सिंह सी दहाड़ कर शत्रुओं पे वार कर भ्रष्ट पर प्रहार कर ये कौन गाँधियों को आईना दिखा के रूला गया?  नमो-नमो छा गया विकास का अस्त्र लिए सुनितीयों का शस्त्र लिए सुप्त जनादेश को पल में जगा गया ये कौन माँ का लाल आज विकास का अग्रदूत बने आ गया?  नमो-नमो छा गया हर कोई अंचभित है विपक्ष दिग्भ्रमित है कभी न सोचा वो कहर बरपा गया ये कौन 16 जून को देश का गौरव पर्व बनाकर छा गया? नमो-नमो छा गया चला पड़ा था वह अकेला बढ़ता गया सर्मथकों का रैला उसने जो ठाना, वो पा गया ये कौन आकर हमें आज  झूठें स्वप्न से जगा गया? नमो-नमो छा गया किसी ने कहाँ छोटा है उसने दिखाया वह बड़ा है छोटे काम को

कानून का अज्ञान, नहीं है बचाव का उपाय

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एक-दूसरे के बीच रफ्तार की प्रतिस्पर्धा और जल्दबाजी के कारण होती सड़क दुर्घटनाएँ आए दिन हमें धरती पर ही नरकलोक के दर्शन करा जाती है। फोर लेन, सिक्स लेन या रेड बस की लेन ही क्यों न हो, खुली आँखों से अंधी बन अंधाधुंध रफ्तार से दौड़ती गाडि़याँ कभी रैलिंग से टकराती है तो कभी गड्ढ़े में गिर जाती है, कभी आपस में ‍भीड़ जाती है तो कभी राह चलतो को घसीट ले जाती है। गंभीर सड़क दुर्घटनाओं की भयावहता को देखकर ऐसा लगता है जैसे गहरी नींद में या शराब के नशे में धूत होकर ड्राइवर गाडि़यों के स्टेयरिंग थामता है और यमराज बन कई लोगों की मौत की कहानी रचता है। हाल ही में कैबिनेट मंत्री गोपीनाथ मुंडे की सड़क दुर्घटना में हुई दुखद मौत ड्राइवर की लापरवाही की ओर ही ईशारा कर रही है। कहते हैं जब आम आदमी मरता है तो प्रशासन सोता है लेकिन जब खास आदमी मरता है तो उसकी मौत के कारणों को खोजने के लिए प्रशासन सरपट इधर-उधर दौड़ता है। कुछ ऐसा ही इस हादसे के बाद भी देखा गया। इस हादसे से सबक लेते हुए मौजूदा सरकार ने मोटर व्हीकल एक्ट में बदलाव के संकेत दिए है, जो जनता की सुरक्षा के प्रतिनई सरकार की एक सराहनीय पहल है। मोट

बदायूं के बाद बरेली में बलात्का‍र

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यहाँ कराहती है मानवता ‍दरिंदों के खौफ से। आज सहम गई है बेटियाँ अब निर्भया और बदायूं की बेटियों की करूण चित्कार सुन। हर तरफ से आवाज़ें आ रही है कि अब बस करो। हैवानियत का यह विभत्स दृश्य अब हमें और न दिखाओ। आप कानून में सख्ती बरतो या इंसाफ को आमजन के हवाले कर दो। लेकिन ये क्या आज फिर अखबारों की लीड खबर बनी बरेली गैंगरेप की घटना ने हमें चौंका दिया। कानून की धज्जियाँ उड़ाने के साथ ही बरेली की घटना ने मानवता के नाम पर भी एक करारा तमाचा जड़ दिया। इस घटना ने हैवानियत की सारी हदों को लांघते हुए हमारे समक्ष निर्ममता और क्रूरता एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया है। जिसे देखकर यहीं कहा जा सकता है कि इस देश का कानून लचर है और अपराधियों के हौंसले बुलंद। यहाँ अपराधियों को न तो फाँसी का खौफ नहीं है और नही पुलिस के डंडों का भय। आखिरकार अपराधियों के प्रति हमारे देश में अपनाई जाने वाली सुधारवादी सोच आखिरकार कब बदलेगी? शायद यहीं वजह है कि इस देश में सजा भोगने के बाद भी अपराधी तो नहीं सुधरते बल्कि इसके उलट बाहर निकलकर बहुगुणित रूप में वे नए अपराधियों को तैयार करते हैं। क्या आज सच में कानून अपराधियों के लिए

गैंगरेप पर राजनीति -

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गैंगरेप, नारी की आज़ादी पर मारा गया सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन का वह करारा तमाचा है, जो खुद को आज़ाद कहने वाली नारी की आवाज़ को सदा के लिए खामोशी के अँधेरों में गुम कर देता है। इस तमाचें की मार शिकार महिला के साथ ही समस्त नारी जाति पर भी पड़ती है। बलात्कार की असहनीय पीड़ा को सहती एक नारी है पर ऐसी घटना के नाम पर जाती है धुत्कारी हजारों-लाखो नारियां। बलात्कार किसी एक का होता है पर खौफ के मारे हजारों लड़कियों की आज़ादी पर बेडि़याँ लगा दी जाती है। घटना एक स्थान पर लेकिन सन्नाटा हर जगह। ऐसे में समाज में सम्मान की दुहाई देने वाले लोग घरों में कैद हो जाते हैं और बैखोफ घुमते हैं वो दरिंदे, जो बैखोफ इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते है। बंदिशे हमेशा नारियों पर लगाई जाती है। कभी उनके छोटे वस्त्रों को दोष दिया जाता है तो कभी चंचलता और मांसल सौंदर्य को, लेकिन पुरूष की निगाहों की खौट पर कभी समाज पाबंधी नहीं लगाता। पुरूषों को अपना मनचाहा पहनने और करने की आज़ादी है लेकिन स्त्री को नहीं। आखिर क्यों? यह प्रश्न भी हमारा है और इसका उत्तर भी हमारे ही पास है। आखिर कब तक हम इन सब चीजों के पीछे समाज