थक गई हूं मैं
- डॉ . गायत्री थक गई हूं अब मैं चलते - चलते रूक गई हूं कुछ कहते - कहते मन में उठा है प्रश्नों का बवंडर झुक गई हूं मैं उठते - उठते तेरी जीत , मेरी हार सब स्वीकार है मेरे तर्क , तेरे कुतर्क , तेरा सम्मान , मेरा अपमान शक , तिरस्कार और झूठा दिखावे का प्यार क्या है तेरे मन में , अब सच बोल दे ना यार अपने बिछुड़े , सपने जले तेरे तेजाब से जल गई रक्त कणिकाएं भी तू महफूज़ है पर तेरे कारण जिंदगी और मौत से हरक्षण लड़ी हूं मैं दहेज की आग में जली हूं मैं गर्भ में घुट - घुटकर मरी हूं मैं भूखे भेड़िये सा तन - मन सब नौंच गया तू तेरा नाम हो गया और बदनाम हो गई हूं मैं हार गई हूं मैं सिसकियां भरते - भरते शुष्क हो गये आंखों के दरिया भी अब दर्द की अब इंतहा हो गई मोम थी कल तक अब पाषाण हो गई तन झांका पर मन न झांका इन नैनों की भाषा तू समझ न पाया सिहर जाती हूं तेरे नाम से भी अब शक का पयार्य बना है