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Showing posts from August, 2021

थक गई हूं मैं

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  - डॉ . गायत्री   थक गई हूं अब मैं चलते - चलते रूक गई हूं कुछ कहते - कहते मन में उठा है प्रश्नों का बवंडर झुक गई हूं मैं उठते - उठते   तेरी जीत , मेरी हार सब स्वीकार है मेरे तर्क , तेरे कुतर्क , तेरा सम्मान , मेरा अपमान शक , तिरस्कार और झूठा दिखावे का प्यार क्या है तेरे मन में , अब सच बोल दे ना यार   अपने बिछुड़े , सपने जले तेरे तेजाब से जल गई रक्त कणिकाएं भी तू महफूज़ है पर तेरे कारण जिंदगी और मौत से हरक्षण लड़ी हूं मैं   दहेज की आग में जली हूं मैं गर्भ में घुट - घुटकर मरी हूं मैं भूखे भेड़िये सा तन - मन सब नौंच गया तू तेरा नाम हो गया और बदनाम हो गई हूं मैं   हार गई हूं मैं सिसकियां भरते - भरते शुष्क हो गये आंखों के दरिया भी अब दर्द की अब इंतहा हो गई मोम थी कल तक अब पाषाण हो गई   तन झांका पर मन न झांका इन नैनों की भाषा तू समझ न पाया सिहर जाती हूं तेरे नाम से भी अब शक का पयार्य बना है

मैं भारत की बेटी हूं

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- डॉ. गायत्री  जिंदगी में कई ऐसे मौके आते हैै, जब हम हार मानना अधिक पसंद करते है और हार मान भी लेनी चाहिए क्योंकि तर्क-कुतर्क, ज्ञान-अज्ञान, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच इन सबसे अधिक जरूरी है आत्मसम्मान। अपने स्वाभिमान या आत्मसम्मान को गिरवी रखकर जितने से बेहतर है हार जाना। उसे जीतने दो, जो आपको हराने में अपनी जीत समझता है।  बड़ा दुख होता है ये जानकर कि इंसान की समझ परिपक्वता की उम्र में भी बालपन से खेलती है, जिम्मेदारी की उम्र में लापरवाही को झेलती है और बुढ़ापे की उम्र में जवानी को खोजती है। हमारी घर और बाहर की सोच में ये फर्क कैसा? हर दिन देश में बढ़ती नारी शोषण और बलात्कार की घटनाओं से मन घबरा जाता है न चाहते हुए भी आंखों से आंसू बह निकलते है और दिल से हर आह के साथ यही चीख निकलती है - ’अब बस करो दरिंदों।’ हर सिसकी से निकली यह बददुआ इस गगन में गुंजायमान होकर चिरस्थायी हो जाती है। क्या यह वही देश है, जहां किसी घर में बेटियां भी पूजी  जाती है? कितनी आजाद है इस देश की बेटियां। यह आज एक ’रिसर्च’ का विषय हैै। इन मुस्कुराते खूबसूरत चेहरों के पीछे का दर्द आपकी मुस्कुराहट है। आपकी सुबह से लेकर रात तक को

दो विकल्प

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- डॉ. गायत्री  उसे चाहिए खुला आसमान मत करो उसे पिंजरों में कैद वो सुंदर है पर आपकी सोच बदसूरत है उसे आसमान की और आपको पिंजरे की जरूरत है परिंदों को चाहिए खुला आसमान भरने दो उन्हें ऊंची-ऊंची उड़ान सोने के जो पिंजरे आपको है भाते नन्हें परिंदे को वो जरा न सुहाते  आप उसे पिंजरे में देख मुस्कुराते हो वो आपको बाहर देख घबराता है अपनी चाह की चाहत में  इंसान परिंदे की चाहत भूले जाता है  अपनी बेबसी पर परिंदा हर दिन आंसू बहाता है क्या दोष था उसका यह उसे समझ नहीं आता  जन्म बस में गर होता तो कभी पंछी न बनना चाहता आज मांगता है वो आपसे मौत या आजादी  जंजीरों में जिंदगी की जंग अब उससे नहीं लड़ी जाती कर दो मुक्त उसे जंजीरों से या जीवन से  दोनों विकल्पों में उसकी खुशी समाई है जिंदगी फिर आपके द्वारे दो विकल्प लेकर आई हैैै।  चित्र साभार: गूगल