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Showing posts from July, 2011
'जिंदगी दो पल की ...' 21 जुलाई 2011 के 'युवा' में प्रकाशित कवर स्टोरी
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14 जुलाई 2011 के 'युवा' में प्रकाशित रघु और राजीव का साक्षात्कार
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फिर दहल गई मुंबई
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26/11 की तरह 13 जुलाई को भी जिंदादिल लोगों की मुंबई एक बार फिर धमाकों के कंपन से दहल व सहम गई है। शाम ढलते ही मुंबई की वह चहल-पहल रौंगटे खड़े कर देने वाले सन्नाटे में तब्दील हो गई है। चीख, चीत्कार और न्याय की गुहार बस मुंबई में तो अब यही सुनाई दे रहा है। अजमल कसाब अब तक जिंदा है और हर बार मर रहा है कोई बेकसूर आम आदमी। क्या हम पाकिस्तान की तरह अपने देश में भी आतंकियों व दगाबाज लोगों का शासन लाना चाहते हैं। यदि नहीं तो फिर क्यों नहीं हम एक इंसान की जान की कद्र समझते है? मेरा प्रश्न आप सभी से है कि हर बार धमाके का शिकार आम आदमी ही क्यों बनता है, कभी कोई राजनेता क्यों नहीं? ऐसा इसलिए कि कही न कही देश की गुप्त सूचनाएँ हमारे ही वफादार राजनेता व उच्च पद पर आसीन लोगों के माध्यम से आतंकियों तक पहुँचती है। हम माने या न माने पर आज हमें सबसे बड़ा खतरा हमारे देश के भीतर बैठे गद्दार व दगाबाज लोगों से हैं। आतंकियों को भारत की जेलों में शरण देना तो हमारी फितरत ही है। यदि आप साँप को प्यार से अपने पास बैठाकर पुचकारोगे तो इसका यह अर्थ नहीं कि साँप अपने जहरीले दंश को भूल आपको प्यार का जवाब
मर्डर 2 की बदबूदार कहानी
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दोस्तों, आज दुर्भाग्यवश मैंने 'मर्डर 2' फिल्म देखी। इस फिल्म को देखकर मुझे इस कड़वे सच का आभास हुआ कि भारतीय संस्कृति व संस्कारों को भूल अब हमारा युवा एक अंधेरी राह की ओर बढ रहा है। बहुत से लोगों को यह फिल्म अच्छी लगी और उन्ही लोगों की वजह से बॉक्स ऑफिस पर भी यह फिल्म हाल की हिट फिल्मों में अपना नाम दर्ज कराने में काबिज रही होगी। पर मेरा व्यक्तिगत मत यही है कि यह फिल्म एक घटिया स्तर की फिल्म है। यदि हम बात करे तो आज से 10-20 साल पहले की तो उस वक्त तक फिल्मों के हिट होने का पैमाना उनका सशक्त कथानक, कथावस्तु, पात्र और फिल्म में निहित संदेश हुआ करते थे। जो समाज को सही राह दिखाकर रिश्तों में प्रेम को काबिज रखते थे। उन फिल्मों में भी डरावने विलेन होते थे पर ऐसे नहीं, जैसे कि मर्डर 2 या दुश्मन फिल्म में दिखाया गए है। इस फिल्म को देखकर तो जहाँ एक ओर बॉलीवुड के किसिंग किंग ईमरान हाशमी के किस की बरसात हमें बारिश के मौसम में शर्म से पानी-पानी करके भिगों देती है। वहीं इस फिल्म के विलेन का लड़कियों को काटकर उन्हें कुँए में फेक देने की आदत हमारे मन में घृणा पैदा कर देती है। म
दादी की जंग जिंदगी और मौत से
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व्यक्ति की पल-पल अपनी गिरफ्त में लेती मौत और मौत की सुस्त चाल पर अट्टाहस करते कैंसर के बीच वार्तालाप का दृश्य बड़ा ही खौफनाक होता है। जीवन और मौत के बीच लड़ाई कुछ घंटों की हो तो ठीक है। पर जब यह लड़ाई घंटों को दिनों में तब्दील कर देती है और आवाज को मौन के सन्नाटे में। तब मौत और जीवन की जंग बड़ी कठिन हो जाती है। हम सभी जानते हैं कि अंतत: जीत मौत की ही होनी है पर फिर भी न जाने क्यों हम जिंदगी को जिताने में कोई कसर शेष नहीं रखते। इन दिनों जीवन-मृत्यु के बीच साँसों के तार की लड़ाई मेरी 75 वर्षीय दादी कमलाबाई लड़ रही है। पिछले शुक्रवार तक तो सबकुछ थोड़ा ठीक था। शनिवार को चलते-चलते गिर पड़ने के कारण अचानक उनके सीधे हाथ की कलाई की हड्डी टूटती है और रविवार को उस हाँथ में प्लास्टर लगाया जाता है। जिस दौरान वह बार-बार कभी अस्पताल की टेबल पर तो कभी कार में बैठे-बैठे मुझसे सोने की जिद करती है, हाथ पकड़कर चलने से इंकार कर गोद में उठाने की जिद करती है और मैं बार-बार उन्हें यही कहती हूँ कि प्लीज दादी, अब तो अपने पैरों पर चलो। क्यों बच्चों की तरह नाटक करते हो? मेरी इस बात पर झल्लाकर वह