होली आई .... बचत का संदेश लाई
दोस्तों, आप सभी को होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। आज शहर में जगह-जगह पर होलिका दहन पर बिखरे पड़ी अधजली लकडि़यों को देखा। ये वही लकडि़याँ थी, जो कल दोपहर तक हरे पत्तों से लहलहा रही थी। सुबह से चौराहे पर सीना ताने खड़ी ये लकडि़याँ शाम तक सिर झुकाकर मुरझाई हुई सी अपनी मौत से पहले अंतिम इच्छा के रूप में अपनी जिंदगी माँग रही थी पर परंपरा की आड़ में प्रदर्शन के नाम पर हर 4-6 घर छोड़कर हमने होलिका के नाम पर इनका ढ़ेर लगाकर इन्हें अग्नि के सुर्पुद कर दिया tऔर रंगों के नाम पर बेफिजूल रंगीन पानी सड़कों पर बहाकर पर्यावरण को गंदा कर दिया।
सच कहूँ तो अब मुझे होली में प्रेम का रंग कम और गंदगी और विद्रोह का रंग अधिक नजर आता है। इस त्योहार का सबसे अधिक शिकार शहर के सार्वजनिक स्थल व इमारते बनती है। जिन्हें मनचले लोग इस दिन जी भर के गंदा और रंगीन करते है।
होली प्रेम और उल्लास का त्योहार है। आप चाहे तो इसे शांतिपूर्ण तरीके से मना सकते हैं। होलिका दहन यदि हमारी परंपरा है तो क्यों न हम हर गली-मोहल्ले की बजाय शहर में एक स्थान पर एकत्र होकर सार्वजनिक होली दहन कर इस परंपरा का निर्वहन करे। हम चाहे तो गीले रंगों की बजाय सूखे रंगों से होली खेलकर अपने शरीर को व पर्यावरण को बेहतर स्वास्थ्य का सुख दे सकते हैं। गर्मी के मौसम में सूखे से त्राहि-त्राहि करने की बजाय प्लीज, आप कृपा करके पानी के अपव्यय को रोके और सूखे रंगों से होली खेले।
मुझे आपकी बात बहुत अच्छी लगी...कोई तो है जो भेड़ चाल में शामिल नहीं है...कोई तो है जो गलत परम्पराओं के खिलाफ बोलने की हिम्मत रखता है...हर गली नुक्कड़ पर होलिका दहन कर हम कौनसी भक्ति कर रहे हैं...मूल्यवान लकड़ी को जला कर हवा को दूषित कर रहे हैं...पानी में गन्दगी घोल कर एक दूसरे पर डाल रहे हैं...ऐसे रंग मल रहे हैं जिन्हें छुडाने में एक की जगह दस बाल्टी पानी लगे...ये कौन समझेगा...कब ये सब बंद होगा...कौन जाने?
ReplyDeleteनीरज
शुक्रिया नीरज जी। आपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद। सच बताऊँ तो आज हम शक्ति प्रदर्शन को भक्ति कह रहे हैं और हो हल्ले को त्योहार मनाना। मूर्ख हम स्वयं है पर हम भगवान को भी मूर्ख बनाना चाह रहे है।
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