नदी का गाँव
मैंने नदी से पूछा, नदी- तेरा गाँव कहाँ है?
दिल को जहाँ सुकून मिले
वो पीपल की छाँव कहाँ है?
नदी बोली- मैं जहाँ रूकती हूँ,
वहीं मेरा गाँव है।
मेरी ठंडक का अहसास ही,
पीपल की छाँव है।
मेरे किनारे पर ही बसते है
घाट, मंदिर और बस्तियाँ अपार।
मुझी से रोशन होते है,
गरीबों के घर-बार।
आलिंगन कर मेरा ही,
धरती पहनती है
हरियाली का गलहार।
और धानी चुनर ओढ़ करती है
चट्टाने अपना श्रृंगार।
'माँ' कहकर करते है बच्चे
अठखेलियाँ मेरी गोद में।
अंजुलि में लेकर सूरज की पाती
भक्त चढ़ाते है मेरी गोद में।
जी भर रोता है कोई किनारे पर मेरे
तो कोई चढ़ावा दे खुशियाँ मनाता है।
मेरा संपूर्ण जीवन तो
परोपकार में ही गुजर जाता है।
घर से निकलती हूँ निर्मल धार बनकर
लौट आती हूँ गंदगी का प्यार बनकर।
श्रृद्धा से लोग जो भी चढ़ाते है
कर लेती हूँ उसको स्वीकार।
भले ही करे वो मुझसे प्यार
या पहनाए मुझे गंदगी का हार।
- गायत्री शर्मा
चित्र साभार: गूगल
कुछ चित्रों को देखकर मेरे शब्दों ने इस कविता का रूप लिया है। इस कविता में लोगों को जीवन देने वाली नदीं के प्रति पंक्तियों के रूप में मेरे विचार प्रेषित है। आपकों ' नदीं का गाँव से शहरों तक का यह सफर' कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत कराए।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति,नदी के परोपकार का उम्दा वर्णन,साथ मे पर्यावरण के संरक्षण की सीख भी दे दी ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति,नदी के परोपकार का उम्दा वर्णन,साथ मे पर्यावरण संरक्षण की सीख भी ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति,नदी के परोपकार का उम्दा वर्णन,साथ मे पर्यावरण के संरक्षण की सीख भी दे दी ।
ReplyDelete