ना उम्र की सीमा हो, ना जन्म का हो बंधन....

-डॉ. गायत्री शर्मा 

विवाह, पवित्रता का वो बंधन, जो प्रेम, समर्पण, त्याग, सामंजस्य व सात जन्मों के साथ का प्रतीक है। पंच तत्वों को साक्षी मानकर ली गई सप्तपदी, स्त्री और पुरुष को समाज की मर्यादा के नियम व सात वचनों के माध्यम से सदा साथ निभाने के उसूलों के बारे में बताती है। यदि वर-वधू दोनों इन वचनों को आत्मसात कर परस्पर सहयोग व प्रेम से एक-दूसरे का साथ निभाते है तो दोनों का जीवन सुखमय होने के साथ ही समाज को भी आदर्श परिवार के रूप में दो युवाओं का सहयोग मिलता है। 

कहते है 'सुख' का अर्थ घर के बाहर उत्सव व आयोजनों में अपनी प्रसन्नता को दिखना मात्र ही नहीं होता है। यदि आपके घर में आध्यात्म, संस्कार, प्रेम, बड़ों व अतिथियों के आदर-सत्कार की परंपरा है तो आप घर में भी ख़ुश रहेंगे और बाहर भी। तब दिखावे के बजाय दिल के रिश्ते सहजता से घर के बाहर व भीतर खुशियों की सुवास बिखेरेंगे।

विवाह से किनारा क्यों? -

विवाह कब, क्यों, किससे और किस उम्र में किया जाएं, इसका सटीक उत्तर नहीं दिया जा सकता है क्योंकि यह सोच व्यक्तिशः परिवर्तित हो जाती है। पिछले दशकों में बढ़ते विवाह-विच्छेद, विवाह पश्चात अवैध प्रेम-सम्बन्ध और दहेज़ प्रताड़ना के प्रकरण आदि को दृष्टिगत करने पर यह स्पष्ट तौर पर परिलक्षित होता है कि वर्तमान में स्त्री-पुरुष दोनों की अपने जीवनसाथी से अति महात्वाकांक्षा, एकल परिवार-प्रणाली और आज़ाद जीवन जीने की चाह ने उन्हें विवाह के सुखद और सुन्दर पक्षों से दूर कर दिया है। यही कारण है कि पारस्परिक सामंजस्य से इस रिश्ते को निभाने की बजाय वो इस पवित्र बंधन को तोड़कर एक-दूसरे को ऐसा नासूर सा दर्द दे जाते है, जिस दर्द के कारण कुछ लोग विवाह के नाम से तौबा करने लगते है तो वहीं कुछ लोग परिवार व समाज के दबाव में न चाहते हुए भी ऐसे अजनबी लोगों से रिश्ता जोड़ लेते है, जिनके साथ उनका वैवाहिक जीवन नई-पुरानी यादों की एल्बम की तरह कभी इस साथी की तो कभी उस साथी की परिस्थितिजन्य यादों में खोकर गुजरता रहता है। पुराने रिश्ते का मोह अनुभव उसे नए रिश्ते को दिल से अपनाने नहीं देता है और नए रिश्ते के कटु अनुभव उसे पुराने रिश्ते की बेहतरी की यादों में ले जाते हैं।   किसी ने ठीक ही कहा है - 'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता।'  ठीक उसी प्रकार  जीवनसाथी और प्रेमी का यह तुलनात्मक अध्ययन शोध की दिशा में अच्छा हो सकता है पर दांपत्य की दृष्टि से नही। यह न तो आपके वर्तमान को सुखद बनाता और न भविष्य को। दो कश्तियों में सवार यह नाव एक दिन डूबना तय ही हैं इसीलिए समझदारी इसी में है कि पुराने का त्याग कर वर्तमान की खुशियों में खुद को रमाया जाएं और जिंदगी को पूरे जोश से खुलकर जिया जाएं।

कुछ तो लोग कहेंगे :-

ना उम्र की सीमा हो, ना जन्म का हो बंधन

जब प्यार करें कोई, तो देखे केवल मन

नई रीत चलाकर तुम, मेरी रीत अमर कर दो..... 

विवाह के बारे में सोचना उन लोगों के लिए जरा मुश्किल होता है, जो 40 के पार विवाह करने की पहल करते है। समाज की सोच, आज़ाद जीवन से निकलकर नए बंधन में बंधकर जीवनभर सुख या दुख दोनों में से किसी एक को परिणाम रूप में पाने का खेला गया जुआं, लड़का-लड़की दोनों के माँ-बाप के बुढ़ापे में उनकी सेवा-सुश्रुषा की चिंता, इस उम्र में परिवार में एक नए सदस्य की बढ़ोत्तरी व उसके खर्चे, सामाजिक जिम्मेदारियां.... आदि कई ऐसे सवाल मन को बेचैन करते है। मन में निरंतर यह सवाल उठता है कि कहीं विवाह के इस जुए में हार गए तो घर वापस जाने का विकल्प खुला होगा या नहीं ? क्या समाज हमें वहीं सम्मान देगा, जो अब तक देता आया है ?एक दिल कहता है कि कर लो विवाह, जो होगा देखा जाएगा और एक दिल कहता है कोई शराबी, जुंआरी या संकुचित सोच वाला व्यक्ति जीवन में आ गया तो जीवन आज जैसा है, उससे भी बदतर हो जाएगा। 

इस दुविधा में दुनिया यह कहकर भी हमें उलाहना दे जाती है कि इस उम्र में तुम्हें अच्छा लड़का मिल रहा है, ज्यादा खामियां निकलोगे तो ये भी हाथ से चला जाएगा। उसकी कमियां भी ना बताओ, बस उसकी तारीफ करो और एक बनावटी जीवन में झूठ व दिखावे के दम पर प्रवेश कर जाओ। सच कहू तो मुझे विवाह के बाजार में रिश्तेदारों की भीड़ में नुमाइश के दम पर 'हां' कहना और 'हां' कहलवाना दोनों ही गलत लगता है। मैं तो यहीं मानती हूँ कि मैं जैसी हूँ वैसी ही तुम्हें पसंद आ जाऊ तभी कहना कि तुम मुझे पसंद हो, तुम्हारी हर बुराई भी मुझे सच्ची लगती है, तुम किसी के भी कहने पर मत बदलना। लोग जिसे तुम्हारी बोल्डनेस कहते हैं, वहीं तुम्हारी खूबियां है। 

कोई भी विवाह तभी सफल होता है जब हमारा कुंडली मेल से पूर्व वैचारिक मेल हो। कर्म की रेखा भाग्य को भी बदल देती है और ३६ गुणों के मिलने पर भी वैचारिक मैत्री नहीं होने पर जीवनभर एक-दूसरे से निबाह नहीं हो पाता है। इसलिए बेहतर है कि लड़का-लड़की एक-दूसरे को जानकर फिर विवाह के लिए आगे कदम बढ़ाए। याद रखिए आपसे प्यार करने वाला व्यक्ति ही आपकी इच्छानुरूप स्वेच्छा से बदल सकता है। अन्यथा किसी स्त्री या पुरुष की स्व इच्छा के विरुद्ध उसे बदलना किसी बंजर भूमि के उर्वर बनने की कल्पना के समान दुष्कर कार्य है।

निष्कर्ष रूप में कहा जाएं तो कब तक हम दोस्तों और परिवार के साथ अपने मन को रमाते हुए उस 'जोकर' की भूमिका निभाते रहेंगे, जो सबके दर्द दूर करता है, सबको हँसाता है पर खुद की तन्हाइयों को दूर करने के लिए वो कभी किसी व्यसन, सोशल नेटवर्किंग और रिल्स की लत आदि में डूब जाने की कोशिश करता है। एकांत की पीड़ा को मिटाने के लिए कभी वो भगवाधारी बनने की चाह रख राधे-कृष्ण में मन रमाता है तो कभी घुमक्कड़ बन बस जिंदगी के शेष दिन यायावरी में काटता है। पर सच कहूँ तो इन सब कार्यों में भी क्षणिक सुख के अलावा उसके हाथ कुछ नहीं लगता है क्योंकि दिन की हँसी-ठिठौली रातों की तन्हाइयों की साथी नहीं बन सकती। रातें अपनों के स्पर्श की गर्माहट को सदा के लिए सहेजकर साथ रखना चाहती है। 

ईमानदार जीवनसाथी के बगैर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव सा है। जीवन एक यात्रा है, जिसका सफर कई जन्मों तक जारी रहना है। इस दूरगामी सफर के हर मोड़ पर हमें एक ऐसे साथी की जरुरत होगी, जो सुख-दुःख, लाभ-हानि हर परिस्थिति में हमारा साथ दे। कहने का तात्पर्य यहीं है कि हम सभी के जीवन में एक साथी तो जरुरी है फिर भले ही परिवार में वंशवृद्धि की इच्छा हो, सुखमय जीवन जीने की इच्छा हो या आध्यात्म मार्ग पर लंबी यात्रा करने की इच्छा हो। 

चित्र साभार - गूगल

Comments

Popular posts from this blog

महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ब्लॉगरों का जमावड़ा

नेत्रहीन बच्चियों को स्वावलम्बी बनाता 'आत्मज्योति नेत्रहीन बालिका आवासीय विद्यालय'

‘संजा’ के रूप में सजते हैं सपने