जगन्नाथपुरी चमत्कारों की धरा

- डॉ. गायत्री शर्मा  

संपूर्ण जगत् के नाथ, प्रजापालक, भक्तवत्सल श्री जगन्नाथजी के परम धाम की यात्रा करना अति पुण्यदायी माना गया है। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानती हूं, जो मुझे वर्ष 2025 में दो बार इस यात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जब मन मैं प्रभु दर्शन की इच्छा प्रबल हो, तो सारे किंतु, परंतु, लेकिन, कामकाज धरे के धरे रह जाते हैं और भक्त चुंबकीय आकर्षण शक्ति से भी अधिक तेजी से जगन्नाथपुरी की ओर खींचा चला जाता है। मेरी कल्पनाओं से परे यह यात्रा अचानक प्लान हुई और दोनों ही बार कई व्यवधानों के बावजूद मेरी यह यात्रा अविस्मरणीय अनुभवों, रोमांच व चमत्कारों की साक्षी बनी। अपनी यात्रा के अनुभवों व जनश्रुतियों के आधार पर मैंने जगन्नाथपुरी धाम की यात्रा के इच्छुक भक्तों के लिए कुछ जानकारी अपने इस लेख में प्रदान की है।   

नीलांचल निवासाय नित्याय परमात्मने। बलभद्र सुभद्राभ्याम् जगन्नाथाय ते नमः॥

    देवता भी जहां जन्म लेने व प्रभु दर्शन पाने को तरसते है, ऐसे नीलांचल के वासी श्री बलभद्रजी, देवी सुभद्राजी और श्री जगन्नाथजी को मैं बारंबार प्रणाम करती हूं।   

नीलांचल, नीलगिरि, श्री क्षेत्र या जगन्नाथपुरी वो परम पावन धाम है, जो धरा पर श्री हरि विष्णु के वास का साक्षात प्रमाण देता है। रहस्यों से भरी जगन्नाथपुरी हमें कलयुग में देवताओं की लीला, कृपा व शक्ति के अनगिनत दैवीय चमत्कारों का साक्षात्कार कराती है। ऊंच-नीच और जातिगत भेदभाव से परे भक्तवत्सल प्रभु अपने सभी भक्तों को दर्शन देने के लिए स्वयं अपना मंदिर छोड़ जगन्नाथपुरी की गलियों में निकल आते हैं। देव-दानव-मनुष्य व प्रकृति सभी के लिए प्रभु का खुले आसमान के नीचे दर्शन पाना व प्रभु के भोग का पान करना उन्हें कोटिक जन्मों के पापों से मुक्ति प्रदान कर मोक्ष गति प्राप्त कराता है। तभी तो कहा जाता है जगन्नाथपुरी में कदम रखना भी हर किसी के लिए मुमकिन नहीं है। जब तक जगन्नाथजी का आदेश व सत्प्रेरणा नहीं होगी, तब तक इस परम पावन धाम में आना किसी भी मनुष्य के लिए संभव नहीं है। तभी तो किसी गीतकार ने एक भजन में लिखा है - कृष्ण कृपा हो तभी, कृष्ण का नाम ले सकोगे। 

श्री जगन्नाथजी का मुख्य मंदिर -

नीलांचल के देवता श्री जगन्नाथजी मुख्य मंदिर परिसर में अपने भाई श्री बलभद्र और देवी सुभद्रा के साथ काष्ठ विग्रह के रूप में विराजित है। मंदिर के नवीन भव्य परिसर में प्रवेश के कई द्वार है। नवीन मंदिर परिसर को एक सुंदर कॉरिडोर के रूप में विकसित किया गया है, जहां भक्तों के बैठने व ईशवंदना करने के लिए पर्याप्त स्थान व बुनियादी सुविधाएं है। मंदिर परिसर में माता विमला देवी, मां लक्ष्मी, श्री गणेश, श्री हनुमान, काशी विश्वनाथ आदि कई देवी-देवताओं के सुंदर विग्रहों वाले मंदिर है। 

मंदिर में प्रवेश करने के लिए मुख्य द्वार के पास ही सीढ़ियां है, जिनमें से एक सीढ़ी को यम शिला कहा जाता है, जिस पर मंदिर में स्थित विग्रह के दर्शन पश्चात वापसी में पैर रखना शुभ नहीं माना जाता है क्योंकि प्राचीन कथाओं के अनुसार मंदिर में विग्रह के दर्शन के उपरांत लौटने पर जो मनुष्य उस सीढ़ी पर पैैर रखता है उसे यमराज के लोक नरक में जाना पड़ता है क्योंकि यमराज को श्री जगन्नाथ महाप्रभु ने यह वरदान दिया था कि जो भी भक्त मेरे दर्शन उपरांत यम सीढ़ी पर कदम रखेगा, उसे तुम अपने लोक ले जा सकते हो किंतु जो भक्त ऐसा नहीं करेगा, उस पर श्री जगन्नाथजी की असीम कृपा होगी और वो अंत में मोक्ष को प्राप्त करेगा। 

मंदिर में मुख्य हॉल में प्रवेश करने पर एक गरूड़ स्तंभ या खंभा नजर आता है। कहते हैं कि भक्तों को अपने भगवान के पहले व दूर से दर्शन इसी खंभे के पीछे से करना चाहिए। जब आप मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करते है तो सर्वप्रथम आपको श्री बलभद्रजी की, फिर सुभद्राजी की और अंत में श्री जगन्नाथ महाप्रभु के नयनाभिराम विग्रह के दर्शन होते हैं। जब तक आप इन तीनों भाई-बहनों की छवि को अपने नयनों में कैद करने का प्रयास करते हैं, तब तक श्रद्धालुओं की भीड़ का सैलाब आपको गर्भगृह से बाहर की ओर धकेल देता है इसलिए कहते हैं कि जब जिस विग्रह के दर्शन हो, उसे प्रेम व श्रद्धाभाव से निहारकर अपने नैनों में बसा लो। मेरे लिए इन विग्रहों की सुंदरता का शब्दों में वर्णन करना असंभव है क्योंकि श्री जगन्नाथजी के प्राण तत्व का तेज विग्रह स्वरूप में भी ऐसा है कि उनके दर्शन मात्र से नयनों में प्रेमाश्रु छलक उठते हैं और हम सभी हाथ जोड़कर नत मस्तक होकर श्री जगन्नाथजी से उनके आशीष बनाए रखने की कामना करते हुए भीगे नेत्रों से गर्भगृह से बाहर चले जाते हैं। 

सुंदर समुद्र तट रेखा  

बंगाल की खाड़ी का सुंदर समुद्र तट, जिसका शोर आपको जलधि के तीव्र आवेग का अहसास कराते हुए दूर तक सुनाई देता है। पुरी में प्रवेश करने के बाद मोक्ष द्वार व गोल्डन बीच वाली सड़क पर सड़क के एक ओर सुंदर समुद्र तट और दूसरी ओर गेस्ट हाउस और होटलों की लंबी कतारे हर दर्शनार्थी का मन उत्साह, उमंग व रोमांच से भर देती है। इसे पुरी के विशाल सुंदर समुद्र का आकर्षण ही कहेंगे कि यहां के जल का शोर और तीव्र वेग आपके कदमों को बरबस ही समुद्र तट की ओर खींच ले जाएगा। 

    कहते हैं इस समुद्र से कुछ दूरी पर खड़ा होने पर भी यह समुद्र्र अपनी परिधि को बढ़ाते हुए हर श्रृद्धालु के पाद प्रक्षालन कर सतत पुण्य संचय करता है। कई कहानियां व किवदंतिया भगवान श्री जगन्नाथ व इस समुद्र के बीच पारस्परिक संबंधों को बंया करती है। यह भी सत्य है कि मंदिर के परिसर में कदम रखते ही इस विशाल समुद्र का शोर हमारी कर्णक्षमता से परे होकर शून्य हो जाता है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि प्रकृति भी प्रभु के ध्यान में खलल करने का साहस नहीं कर सकती है। 

हर शाम समुद्र तट के किनारे लगने वाली सैकड़ों छोटी-छोटी दुकाने और उन दुकानों में मिलने वाले भांति-भांति के शंख, सीपी के तोरण, हाथी दांत की चूड़ियां, मोतियों की मालाएं, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्राजी की सुंदर प्रतिमाएं व तस्वीरें हमें अनायास ही आध्यात्म के रंग और सुंदरता से सराबोर कर देती है।  

स्वर्ग द्वार बीच - 

सप्तपुरियों में से एक जगन्नाथपुरी को मोक्ष धाम भी कहा जाता है। यहां जन्म लेने वाले व यहां रहने और आने वाले तथा यहां अपने जीवन की अंतिम यात्रा का पूर्ण विश्राम लेने वाले स्वतः ही प्रभु के कृपा पात्र होकर के वैकुंठ धाम को प्राप्त होते हैं। जिस नगरी का राजा अपने परिवार के साथ पुरी में निवास करता हो, वहां आत्मा भी एक से दूसरे शरीर को धारण करने व पुरी में ही बसने की इच्छा लिए रखती है। तभी तो पुरी में दाह संस्कार हिंदु धर्म के नियमों से परे सूर्यास्त के पश्चात भी चौबीसों घंटे होता है। 

    यहां समुद्र तट के किनारे स्थित या स्वर्ग द्वार एक ऐसा पावन स्थान है, जहां दूर-दूर से लोग चिताग्नि के दर्शन की इच्छा लिए आते हैं। कहते हैं मरघट पर स्त्रियों का जाना वर्जित होता है परंतु पुरी स्थित स्वर्ग द्वार वो स्थान है, जहां स्त्री-पुरूष और छोटे बच्चे हर कोई प्रसन्न मन से प्रवेश करता है। एक चिता की अग्नि के जलते ही दूसरी चिता की अग्नि का प्रज्जवलन और ऐसे करके अनेकों चिताओं की धधकती अग्नि के दर्शन हमें मानव जीवन की क्षणभंगुरता व अहंकार की अति के नाश व ईश्वरतत्व की सत्यता का परिचय देती है। तभी तो कहते है कि - मत कर माया को अहंकार, मत कर काया को अभिमान, काया गार सी काची। यह परम सत्य है कि इस धरा पर मानव तो क्या देवताओं को भी अपनी इस काया का त्याग करना पड़ा था। 

साक्षी गोपाल मंदिर -

भगवान जगन्नाथजी लीलाधारी व छलिया है। आपने जगन्नाथपुरी में जाकर प्रभु श्री जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्राजी के दर्शनों का लाभ लिया है। इस बात का आपकी आने वाली पीढ़ियों व प्रभु के लिए साक्षी बनाने के लिए आपको जगन्नाथपुरी व पीपली के बीच स्थित साक्षी गोपाल के पास जाना होता है। साक्षी गोपाल की मोहक मनोहारी प्रतिमा को दर्शन कर आप मन ही मन प्रभु का स्मरण कर उन्हें अपने श्रीजगन्नाथपुरी धाम में प्रभु के दर्शनों का साक्षी बनाते हैं। यहीं कारण है कि जगन्नाथपुरी आने वाला हर भक्त साक्षी गोपाल के दर्शन अवश्य करता है। वैसे तो जगन्नाथपुरी परिसर में ही साक्षी गोपाल का भी एक भव्य मंदिर है लेकिन साक्षी गोपाल के दर्शन साक्षी गोपाल के मुख्य मंदिर में जाकर करना और मंदिर की परिक्रमा करना अति पुण्यदायी माना जाता है। 

जगन्नाथपुरी का महाप्रसाद - 

पुरी के प्रसाद को महाप्रसाद भी कहा जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है भगवान विष्णु अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते है, द्वारकापुरी में वो अपनी पोषाख बदलते हैं, जगन्नाथपुरी में भोजन करते हैं और रामेश्वरम् में विश्रााम करते है। यही कारण है कि प्रभु की रसोई होने के कारण जगन्नाथपुरी मंदिर के प्रसाद या भोजन को महाप्रसाद कहा जाता है, जिसे ग्रहण करना या पाना महापुण्यदायी होता है। 

जगन्नाथपुरी मंदिर परिसर में हर कदम पर चमत्कार की एक कथा जुड़ी है। ऐसा ही चमत्कार इस मंदिर के रसोईघर में भी देखने को मिलता है। यहां आज भी वर्षों पुराने पारंपरिक तरीके से लकड़ी के चूल्हे पर जगन्नाथ महाप्रभु का महाप्रसाद बनाया जाता है। कहा जाता है कि इस मंदिर में बनने वाली महाप्रसादी के लिए एक के ऊपर एक करके सात मिट्टी की हांडियों में भोजन पकाया जाता है लेकिन आग के सबसे अधिक संपर्क में रहने वाली सबसे नीचे वाली हांडी में भोजन सबसे देर से और सबसे ऊपर वाली हांडी में भोजन सबसे पहले पकता है। यह आश्चर्य नहीं तो और क्या है? 

    कहा जाता है मां लक्ष्मी स्वयं इस रसोई का संचालन करती है। जिनकी कृपा से आज तक कभी कोई मंदिर से भूखा नहीं गया। यहां कितनी भी संख्या में भक्तजन प्रसाद ग्रहण कर लें पर यह महाप्रसादी कभी कम नहीं पड़ी और न कभी शेष बची है। इस रसोई की पवितत्रा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रसोईघर में किसी भी अनाधिकृत व्यक्ति का प्रवेश वर्जित है केवल वहीं रसोईएं रसोई में अपना काम कर सकते हैं, जिनके लिए जो काम निर्धारित है। इनमें से कोई भी अपने कार्य का त्याग कर दूसरों के कार्य में दखल नहीं देता है। 

    आज भी इस रसोई में प्रयोग की जाने वाला हर मसाला सिलबट्टे पर पीसा जाता है, नारियल को आज भी यहां हाथ से ही पुराने तरीके से किसा जाता है। आधुनिकता में भी प्राचीन परंपरा का पालन करती जगन्नाथपुरी की रसोई में बने महाप्रसादी का भोग हर श्रद्धालु को अवश्य लेना चाहिए क्योंकि पुरी में महाप्रसादी के भोग को पाने का बहुत अधिक महत्व है। मंदिर परिसर में ही स्थित रसोई के पास बने आनंद बाजार से आप इस भोग को लेकर उसे ग्रहण कर सकते हैं व इसके साथ ही आप अपने घर पर ले जाने के लिए मिठाई, मठरी, भोग के पोटली वाले चावल आदि प्राप्त कर सकते हैं। 

मंदिर की ध्वजा व चक्र - 

पुरी के मंदिर की ध्वजा श्री जगन्नाथप्रभु की यहां पर उपस्थिति का प्रमुख प्रमाण है। इस मंदिर की ध्वजा हर रोज बिना किसी सुरक्षा मंदिर के शिखर पर चढ़कर बदली जाती है। कहा जाता है कि यदि किसी रोज भी इस ध्वजा को नहीं बदला गया, तो यह मंदिर 18 वर्षों के लिए स्वतः ही बंद हो जाएगा व अनर्थ हो जाएगा। चाहे आंधी हो या तूफान, महामारी हो या त्योहार सदियों से आज तक मंदिर की ध्वजा हर रोज अबाध रूप से बदली जा रही है। 

    इस रहस्यमयी ध्वजा का एक ओर चमत्कार इस ध्वजा का हवा की गति से विपरीत बहना है। मंदिर परिसर में 50 के लगभग छोटे-बड़े मंदिर है और हर मंदिर पर ध्वजा लगी है। से सभी ध्वजाएं हवा की दिशा में बहती है पर इन्हीं के समीप स्थित श्री जगन्नाथजी के मंदिर की ध्वजा इन ध्वजाओं से अलग अपने ही वेग में हवा की दिशा से कुछ अलग या विपरीत बहती है। मंदिर के शिखर पर स्थित सुदर्शन चक्र भी किसी भी दिशा से देखने पर सदैव हमारी ओर ही दिखाई देता है। इस मंदिर के शिखर के ऊपर से कभी कोई विमान या पक्षी नहीं उड़ता है।     

श्री जगन्नाथ मंदिर विग्रह-

जगन्नाथपुरी का मुख्य आकर्षण व दिव्य शक्ति पुंज श्री जगन्नाथ मंदिर में विराजित श्री जगन्नाथ, श्री बलभद्र व देवी सुभद्रा जी के नयनाभिराम, मनमोहक व अलौकिक आकर्षण से युक्त तीन दिव्य विग्रह है। विशेष प्रकार के गुणों से परिपूर्ण नीम की काष्ठ से बने ये तीनों विग्रह अपूर्ण होने के बावजूद भी परिपूर्ण है। इन विग्रहों के नेत्र पलकोंरहित गोल-गोल और बड़े हैं। कहते हैं भक्तवत्सल भगवान अपने हर भक्त को अपने इन बड़े-बड़े नेत्रों से निहारते हैं व उन पर अपनी कृपा की वर्षा करते हैं। कोई भी भक्त अपने आराध्य के नेत्रों से ओझल न हो पाए। यहीं कारण है कि प्रभु के ये विग्रह पलकविहीन नेत्रों के विग्रह है, जिससे कि प्रभु इन गोल-गोल नेत्रों से दूर तक व आसपास मौजूद सभी भक्तों को निहारते हैं।  

प्राण या दिव्य तत्व - 

धरा का वैकुण्ठ कहे जाने वाले जगन्नाथपुरी की महिमा का वर्णन करना शब्दातीत है। जिन आराध्यों की प्रतिमा व तस्वीर मात्र के दर्शनों से ही हम कलयुग में उनकी कृपा व मौजूदगी की कल्पना कर लेते हैं। लेकिन जगन्नाथपुरी दुनिया का एकमात्र ऐसा धाम है, जहां श्री हरि विष्णु स्वयं श्री जगन्नाथ महाप्रभु के रूप में दिव्य प्राण तत्व के साथ काष्ठ के विग्रह में विराजमान है। प्रभु के इस प्राण तत्व का स्पदंन व चमत्कार अनादिकाल से देखे जा रहे हैं। श्री जगन्नाथजी के साथ ही श्री बलभद्रजी व देवी सुभद्राजी के विग्रह भी चमत्कारिक व मनमोहक है।  

ऐसी मान्यता है कि राजा इंद्रद्युम्न ने अपने स्वप्न में मिले ईश्वर के निर्देशानुसार जिस विशाल काष्ठ से श्री जगन्नाथजी, श्री बलभद्रजी और देवी सुभद्राजी की प्रतिमाएं बनवाई थी। वह काष्ठ समुद्र के रास्ते द्वारका से जगन्नाथपुरी तक तैरती हुई पहुंची थी और उस काष्ठ में श्री कृष्ण का प्राण तत्व स्पंदन के रूप में जागृत था। इस काष्ठ पर छैनी या हथौड़ा चलाना हर किसी के बस की बात नहीं थी, तभी तो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ कारीगर स्वयं परमपिता ब्रह्माजी को बुजुर्ग की काया धारण कर तीनों काष्ठ प्रतिमाएं बनाने के लिए धरा पर अवतरित होना पड़ा था। 

कुछ रहस्यों का रहस्य रहना ही उचित होता है। मान्यता है कि इन विग्रहों में आज भी दिव्य जागृत शक्तिपुंज के रूप में यह दैवीय तत्व मौजूद है। प्रति 18 वर्षों में इन विग्रहों को जब नए विग्रहों से बदला जाता है। तब संपूर्ण पुरी नगरी में अंधेरा करके व पुजारी की आंखों पर पट्टी बांधकर किसी भी इंसानी या मशीनी व्यवधानों से परे यह दैवीय प्राण तत्व पूरे विधि-विधान से एक विग्रह से दूसरे विग्रह में हस्तांतरित किया जाता है। ऐसी भी जनश्रुति है कि जो पुजारी इस दैवीय शक्ति को उस विग्रह से अनुरोध व पूजन के पश्चात प्राप्त कर दूसरे विग्रह में प्रविष्ठ कराता है, वह पुजारी अल्पायु होकर 2-3 बरस में ही श्रीहरि के आर्शीवाद से वैकुण्ठवासी हो जाता है। 

प्रतिदिन के दर्शनों व पूजन पद्धति के अनुरूप भगवान के विग्रहों को सुंदर रंग-बिरंगी पोषाखें धारण कराई जाती है तथा विग्रहों को मोती व रत्नजड़ित सुंदर आभूषणों से सुसज्जित किया जाता है। किसी पर्व, थीम या त्योहार विशेष के श्रृंगार को भेष कहा जाता है। इस प्रकार वर्षभर के त्योहारों के अनुसार श्री जगन्नाथ जी व उनके भाई-बहन का श्रृंगार नागार्जुन भेष, पद्म भेष, सोना भेष, राज-राजेश्वर भेष, कृष्ण-बलराम भेष, गज उद्धरण भेष, रघुनाथ भेष आदि के अनुसार किया जाता है।   

निष्कर्ष रूप में कहे तो उड़ीसा को मंदिरों की सुंदर बनावट, नक्काशी, देव विग्रह, श्रृंगार व उत्सवों के कारण दुनियाभर में पहचाना जाता है। उड़ीसा के कटोरेनुमा मंदिर की संरचना दूर से ऐसी दिखाई देती है, मानो किसी ने किसी कटोरे या ढ़क्कन को गुंबद के रूप में सजाकर उलटा धरा पर रख दिया हो। इन मंदिरों में विग्रहों का श्रृंगार देखते ही बनता है। 

जब आप श्री जगन्नाथमंदिर पुरी में हो तो मानों आप प्रभु दर्शन के साथ ही अपने मानव जीवन के प्रयोजन को भी समझ जाते हैं। पुरी में मौजूद जागृत विग्रह आपको क्षणभर में जीवन के सत्य का परिचय दे जाते हैं। मंदिर में एक ओर आप भक्तों की आस्था के सैलाब को देखते हैं, वहीं स्वर्ग द्वार पर आप जीवन की समाप्ति के धू-धू करते मंजर को देखते हैं। वहीं शाम में कोप की अग्नि में कांपत समुद्र का वेग और लहरों की ऊंचाईयां हमें यह आभास कराती है कि प्रकृति और ईश्वर के आगे मानव का कोई वजूद नहीं है। जब तक सब शांत है, बेहतर है किंतु जब ये दोनों हमसे अपने कर्मों का हिसाब मांगेगे, तब हमारे पास इन्हें लौटाने को कुछ नहीं होगा और शून्य से शुरू हुआ हमारा जीवन हमें फिर से शून्य के गर्भ में मिला देगा। 

जय श्री जगन्नाथ 

चित्र साभार - गूगल 


  

 

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