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मानवता के मुँह पर तमाचा है बलात्कार

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  - डॉ. गायत्री शर्मा हम क्या थे और किस ओर जा रहे हैं, इसका विचार किए बगैर ही आज का मानव दैहिक और भौतिक सुख की अति पराकाष्ठा  के उस चरम शिखर पर पहुंच गया है, जहाँ से दोबारा लौटकर उसका पशु से इंसान बनना अब नामुमकिन सा लगता है। कहते हैं इंसान के शरीर से ज्यादा उसकी आत्मा का शुद्ध होना जरुरी हैं पर 'मुँह में राम, बगल में छुरी' के इस बनावटी युग में इंसान के लिए सारा आकर्षण व दैहिक भूख का केंद्र बिंदु स्त्री देह ही है, फिर चाहे वह देह किसी दुधमुँही या नन्हीं बच्ची की हो या फिर किसी किशोरी या प्रौढ़ महिला की हो।  मानवता को शर्मसार कर रिश्तों को कलंकित करने वाला बलात्कार रूपी जघन्य अपराध सभ्य समाज के मुँह पर मारा गया वो करारा तमाचा है, जिसकी गूंज सदियों तक न्याय के गलियारों में गुंजायमान रहेगी क्योंकि न्याय के मंदिर कहे जाने वाले भारतीय न्यायालयों में 'सुधारात्मक न्याय प्रणाली' के चलते प्राथमिक तौर पर अपराधी के सुधरने व सभ्य नागरिक बनने की उम्मीद की जाती है लेकिन ये उम्मीद आदतन अपराधियों की आपराधिक प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगा पाती है। ऐसे प्रकरणों में कानून की तंग गलियों से आ

नेत्रहीन बच्चियों को स्वावलम्बी बनाता 'आत्मज्योति नेत्रहीन बालिका आवासीय विद्यालय'

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- डॉ. गायत्री शर्मा  अगस्त २०२४ में अपने ग्वालियर प्रवास के दौरान पारीख जी के बाड़ा की पवित्र भूमि पर मोदी परिवार से मिलना और उनके द्वारा किए जा रहे पारमार्थिक कार्यों के बारे में जानना मेरे लिए बीहड़ क्षेत्र के अजनबी शहर की धूप में किसी विशाल बरगद की छाँव में महफूज़ होने के सामान सुखद था। मोदी परिवार के आतिथ्य का वर्णन करना मेरे लिए शब्दातीत है क्योंकि इस परिवार के लिए हर वो छोटा-बड़ा व्यक्ति अपना है, जो उनका परिचित है या उनके परिचित का परिचित या रिश्तेदार है। बस यहीं पहचान है आपकी उसकी घर में दाखिल होने की।   रामायण की एक चौपाई में कहा गया हैं कि  'जा पर कृपा राम की होई , ता पर कृपा करे सब कोई' ।   अक्सर यह देखा जाता है कि अभाव व्यक्ति को झुकना सिखाते है और सम्पन्नता उसे गुरुर से गर्वित होना लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते है, जो संपन्न होते हुए भी सादगी से जीवन जीना पसंद करते हैं। ऐसे लोग भगवद्कृपा से मिले धन का उपयोग गरीब और जरूरतमंद लोगों की सेवा के लिए करते हैं। एक ऐसा ही सेवाभावी परिवार है - ग्वालियर का मोदी परिवार।   'मालगुडी डेज' धारावाहिक के पुराने घरों की तरह दिखने वाल

ना उम्र की सीमा हो, ना जन्म का हो बंधन....

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-डॉ. गायत्री शर्मा   विवाह, पवित्रता का वो बंधन, जो प्रेम, समर्पण, त्याग, सामंजस्य व सात जन्मों के साथ का प्रतीक है। पंच तत्वों को साक्षी मानकर ली गई सप्तपदी, स्त्री और पुरुष को समाज की मर्यादा के नियम व सात वचनों के माध्यम से सदा साथ निभाने के उसूलों के बारे में बताती है। यदि वर-वधू दोनों इन वचनों को आत्मसात कर परस्पर सहयोग व प्रेम से एक-दूसरे का साथ निभाते है तो दोनों का जीवन सुखमय होने के साथ ही समाज को भी आदर्श परिवार के रूप में दो युवाओं का सहयोग मिलता है।  कहते है 'सुख' का अर्थ घर के बाहर उत्सव व आयोजनों में अपनी प्रसन्नता को दिखना मात्र ही नहीं होता है। यदि आपके घर में आध्यात्म, संस्कार, प्रेम, बड़ों व अतिथियों के आदर-सत्कार की परंपरा है तो आप घर में भी ख़ुश रहेंगे और बाहर भी। तब दिखावे के बजाय दिल के रिश्ते सहजता से घर के बाहर व भीतर खुशियों की सुवास बिखेरेंगे। विवाह से किनारा क्यों? - विवाह कब, क्यों, किससे और किस उम्र में किया जाएं, इसका सटीक उत्तर नहीं दिया जा सकता है क्योंकि यह सोच व्यक्तिशः परिवर्तित हो जाती है। पिछले दशकों में बढ़ते विवाह-विच्छेद, विवाह पश्चात अवैध प

धरा का बांसती स्वर

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  - डॉ. गायत्री शर्मा  बसंत प्रेम और सौंदर्य का पर्व है, जब मानव मन के साथ ही प्रकृति भी अनुपम सौंदर्य से पल्लवित हो जाती है। जब चारों ओर के नज़ारे खुशनुमा होते है तब हमारा दृष्टिकोण भी स्वतः ही सकारात्मक हो जाता है। पुष्पगुच्छ से लदे पौधे, आम की नाजुक डालियों से निकलते बौर और महुए की मादकता से मदमाती प्रकृति मानों हमें भी प्रेम के प्रेमिल बंधनों की अनुभूतियों का आनंद लेने के लिए आकर्षित करती है। इस ऋतु में चहुओर आनंद, उमंग और सौंदर्य का समागम समूची सृष्टि में जीव और जगत का एकाकार कर उन्हें एक राग और एक लय में पिरो देता है।  अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी कविता में बंसत के सौंदर्य का बखूबी वर्णन किया है-  टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर, पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर  झरे सब पीले पात, कोयल की कुहुक रात  प्राची में अरूणिम की रेख देख पाता हूं गीत नया गाता हूं   बसंत नवसृजन का उत्सव है। मां वीणावादिनी की आराधना के साथ ही हम इस दिन से नव का आरंभ करते है। प्रकृति के पीत रंग में रंगकर हम भी स्वयं को उसके एक अंश के रूप में स्वीकार्य करते हैं। ऋतु परिवर्तन से दिनचर्या परिवर्तन के इस उत्सव मे

मेरे घर राम आये हैं - गायत्री शर्मा

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मेरे राम आज घर पधारे है

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मेरे राम आज घर पधारे है विरह की पीड़ा बड़ी थी लंबी रामलला बिन मन की अवध थी सुनी कोटिक पुण्य तेरे दरस पे वारे है मेरे राम आज घर पधारे है तुझ बिन राम कैसी दिवाली अश्रुजल से बरसों जली इंतज़ार की बाती तुम जो आए पाषाण बने हृदयों में जैसे प्राण पधारे है मेरे राम आज घर पधारे है  समझ न आए कैसे करुँ मैं स्वागत दुनियादारी मैं न जानू, मैं तो तेरी प्रीत ही जानू तुझ बिन क्षण-क्षण युग-युग से मैंने काटे है मेरे राम आज घर पधारे है                                     - डॉ. गायत्री शर्मा

जीवन: पानी का बुलबुला कविता - डाॅ. गायत्री शर्मा

 मेरी कविता जीवन: पानी का बुलबुला का प्रकाशन न्यूज़ 18 जंक्शन में  https://newsjunction18.com/92559/ - डाॅ. गायत्री शर्मा

माँ चमेली देवी स्मृति नारी शक्ति सम्मान 2023

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  समाज में महिलाओं की उल्लेखनीय भूमिका को स्वीकार करते हुए महिलाओं की प्रतिभा व सफलता से समाज को नारी शक्ति के सम्मान के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष चमेली देवी ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूशन्स द्वारा ' माँ चमेली देवी स्मृति नारी शक्ति सम्मान ' प्रदान किया जाता है। गत वर्षों में इस सम्मान को प्रोफेसर रेणु जैन , माननीय कुलपति देवी अहिल्या विश्वविद्यालय व पद्मश्री जनक पलटा दीदी ने गौरवान्वित किया था। इस वर्ष यानि कि 18 मार्च 2023 को पहली बार एक आदिवासी महिला डॉ . दीपमाला रावत , विषय विशेषज्ञ , जनजाति विभाग , राजभवन , भोपाल को इस सम्मान से सम्मानित किया गया।   आदिवासियों की आवाज़ बन उनकी समस्याओं को सरकार तक पहुंचाने में व मध्यप्रदेश के आदिवासियों के उत्थान के लिए कार्य करने में आपकी उल्लेखनीय भूमिका रही है। कोमल , सहज व मृदुभाषी दीपमाला जी की अब तक की जीवन यात्रा भी समाज के लिए प्रेरणादायी है। पढ़ाई छोड़ने के 13 वर्षों बाद अपनी बच्ची व पति क

थक गई हूं मैं

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  - डॉ . गायत्री   थक गई हूं अब मैं चलते - चलते रूक गई हूं कुछ कहते - कहते मन में उठा है प्रश्नों का बवंडर झुक गई हूं मैं उठते - उठते   तेरी जीत , मेरी हार सब स्वीकार है मेरे तर्क , तेरे कुतर्क , तेरा सम्मान , मेरा अपमान शक , तिरस्कार और झूठा दिखावे का प्यार क्या है तेरे मन में , अब सच बोल दे ना यार   अपने बिछुड़े , सपने जले तेरे तेजाब से जल गई रक्त कणिकाएं भी तू महफूज़ है पर तेरे कारण जिंदगी और मौत से हरक्षण लड़ी हूं मैं   दहेज की आग में जली हूं मैं गर्भ में घुट - घुटकर मरी हूं मैं भूखे भेड़िये सा तन - मन सब नौंच गया तू तेरा नाम हो गया और बदनाम हो गई हूं मैं   हार गई हूं मैं सिसकियां भरते - भरते शुष्क हो गये आंखों के दरिया भी अब दर्द की अब इंतहा हो गई मोम थी कल तक अब पाषाण हो गई   तन झांका पर मन न झांका इन नैनों की भाषा तू समझ न पाया सिहर जाती हूं तेरे नाम से भी अब शक का पयार्य बना है