थक गई हूं मैं
- डॉ. गायत्री
रूक गई हूं कुछ कहते-कहते
मन में उठा है प्रश्नों का बवंडर
झुक गई हूं मैं उठते-उठते
तेरी जीत, मेरी हार सब स्वीकार है
मेरे तर्क, तेरे कुतर्क, तेरा सम्मान, मेरा अपमान
शक, तिरस्कार और झूठा दिखावे का प्यार
क्या है तेरे मन में, अब सच बोल दे ना यार
अपने बिछुड़े, सपने जले
तेरे तेजाब से जल गई रक्त कणिकाएं भी
तू महफूज़ है पर तेरे कारण
जिंदगी और मौत से हरक्षण लड़ी हूं मैं
दहेज की आग में जली हूं मैं
गर्भ में घुट-घुटकर मरी हूं मैं
भूखे भेड़िये सा तन-मन सब नौंच गया तू
तेरा नाम हो गया और बदनाम हो गई हूं मैं
हार गई हूं मैं सिसकियां भरते-भरते
शुष्क हो गये आंखों के दरिया भी अब
दर्द की अब इंतहा हो गई
मोम थी कल तक अब पाषाण हो गई
तन झांका पर मन न झांका
इन नैनों की भाषा तू समझ न पाया
सिहर जाती हूं तेरे नाम से भी अब
शक का पयार्य बना है तू सनम बनते-बनते
जननी कहता है जग मुझे
मैंने जीने का दिया अधिकार, तुमने छिन लिया
क्या घर, क्या बाहर हर जगह ’तुम औरत हो’
पक गई हूं मैं ये सुनते-सुनते
जी करता है अब घुमा दूं मैं समय की घड़ी
करा दूं सैर तुम्हें अतीत की
कभी काली, कभी सावित्री, कभी अहिल्या, कभी देवकी
हर किरदार मैं तेरी सलामती के लिए
खुदा से भी लड़ी हूं मैं
तुमने गिराया कई बार
हर बार मजबूती से खड़ी हूं मैं
लात-घूसे, ताने-अपमान स्वीकार कर
तेरी दहलीज से बरसों से जुड़ी हूं मैं
मैं बेटी हूं अपने बाबा की लाडली
मां को देख-देख हर मुसीबत से लड़ी हूं मैं
कपड़ों की तरह तुमने बदले किरदारों से स्वभाव
हर किरदार में बखूबी ढ़ली हूं मैं
मुझे फक्र है मैं बेटी हूं और हर जनम बेटी ही बनना चाहूंगी।
चित्र साभार - गूगल
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
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