दादी की जंग जिंदगी और मौत से
व्यक्ति की पल-पल अपनी गिरफ्त में लेती मौत और मौत की सुस्त चाल पर अट्टाहस करते कैंसर के बीच वार्तालाप का दृश्य बड़ा ही खौफनाक होता है। जीवन और मौत के बीच लड़ाई कुछ घंटों की हो तो ठीक है। पर जब यह लड़ाई घंटों को दिनों में तब्दील कर देती है और आवाज को मौन के सन्नाटे में। तब मौत और जीवन की जंग बड़ी कठिन हो जाती है। हम सभी जानते हैं कि अंतत: जीत मौत की ही होनी है पर फिर भी न जाने क्यों हम जिंदगी को जिताने में कोई कसर शेष नहीं रखते। इन दिनों जीवन-मृत्यु के बीच साँसों के तार की लड़ाई मेरी 75 वर्षीय दादी कमलाबाई लड़ रही है।
पिछले शुक्रवार तक तो सबकुछ थोड़ा ठीक था। शनिवार को चलते-चलते गिर पड़ने के कारण अचानक उनके सीधे हाथ की कलाई की हड्डी टूटती है और रविवार को उस हाँथ में प्लास्टर लगाया जाता है। जिस दौरान वह बार-बार कभी अस्पताल की टेबल पर तो कभी कार में बैठे-बैठे मुझसे सोने की जिद करती है, हाथ पकड़कर चलने से इंकार कर गोद में उठाने की जिद करती है और मैं बार-बार उन्हें यही कहती हूँ कि प्लीज दादी, अब तो अपने पैरों पर चलो। क्यों बच्चों की तरह नाटक करते हो? मेरी इस बात पर झल्लाकर वह अपनी ही भाषा में मुझे कहती है 'रहने दे थारी वाता, मूँ अटे मरी री हूँ और तू मने चलवा रो कई री है।' यहाँ तक कि इंजेक्शन व जीवन में पहली बार प्लास्टर चढने के डर के कारण वह डॉक्टर से भी कहती है कि डॉक्टर साहब, थे तो मने कोई दवा ने हाथ पे मसरवा रो टूब दई दो। मने कई नी वियो है। पापा, भैया और मेरे द्वारा दादी को बहुत समझा-बुझाकर और मान-मनुहार कर रविवार को प्लास्टर चढवाने के लिए राजी किया जाता है।उन्हें रविवार को रतलाम में प्लास्टर चढवाने के बाद मैं सोमवार को अपने काम पर अर्थात इंदौर लौट आती हूँ।
मेरे इंदौर आने के बाद मंगलवार से दादी की तबीयत बिगड़ना शुरू होती है और मंगलवार से रविवार तक वह इस स्थिति में पहुँच जाती है कि उनका खाना-पीना, उठना, चलना, बोलना सब बंद हो चुका होता है। मैं 10 जुलाई 2011, रविवार को ही उनसे मिलकर आई हूँ पर उनका सूजन से फूला चेहरा, चिपकी हुई आँखे व बिस्तर से चिपके हाथ-पैर देखकर मैं दंग रह गई और अपने आँसू रोक नहीं पाई। हालाँकि अभी भी उनके पास उनके स्नेहीजनों का हुजूम जमा है पर आज की स्थिति में लगातार तीन-चार दिनों से आँखे बंद होने के कारण ना तो वह उन्हें देख पा रही है और मुँह बंद होने की वजह से ना ही वो उन्हें कुछ कह पा रही है। यहाँ तक कि अब उनके शरीर ने धीरे-धीरे बदबू मारना व गलना भी शुरू कर दिया है। शायद इसे ही कहते कैंसर का विकराल व विभत्स रूप। जिसने 8 साल बाद एक बार फिर से उन पर अपना रंग जमाना शुरू कर दिया है।
भीतर ही भीतर उनका शरीर किस कदर दर्द से कराह रहा होगा। उसे शब्दों में बँया कर पाना भी मेरे लिए बड़ा मुश्किल है। आज मुझे धार्मिक आस्था रखने वाले अपने बड़े-बुर्जुगों की वह बात याद आती है कि इंसान को अपने कर्मों का फल इसी धरती पर भुगतना होता है। कर्मों का फल भुगते बगैर उसकी मौत नहीं होती है।
ब्रेस्ट से आरंभ होकर फेफड़े, हड्डियों और अब दादी की किडनी को अपनी गिरफ्त में ले चुका कैंसर उन्हें जिंदगी की बजाय मौत से प्रेम करना सीखा रहा है। पर ऐसी स्थिति में भी मौत और जिंदगी दोनों में से कोई भी हार मानने को तैयार नहीं है। यही वजह है कि उनकी साँसों की रिदम रूक-रूककर भी चल रही है। दोस्तों, सच कहूँ तो दादी की स्थिति देखकर मैं कभी अपने किसी दुश्मन को भी कैंसर होने की बददुआ नहीं दूँगी। यह बीमारी जिंदगी को या तो निगल जाती है या फिर इंसान को तिल-तिल मरने को छोड़कर जिंदगी को मौत से भी बदतर कर देती है।
पिछले शुक्रवार तक तो सबकुछ थोड़ा ठीक था। शनिवार को चलते-चलते गिर पड़ने के कारण अचानक उनके सीधे हाथ की कलाई की हड्डी टूटती है और रविवार को उस हाँथ में प्लास्टर लगाया जाता है। जिस दौरान वह बार-बार कभी अस्पताल की टेबल पर तो कभी कार में बैठे-बैठे मुझसे सोने की जिद करती है, हाथ पकड़कर चलने से इंकार कर गोद में उठाने की जिद करती है और मैं बार-बार उन्हें यही कहती हूँ कि प्लीज दादी, अब तो अपने पैरों पर चलो। क्यों बच्चों की तरह नाटक करते हो? मेरी इस बात पर झल्लाकर वह अपनी ही भाषा में मुझे कहती है 'रहने दे थारी वाता, मूँ अटे मरी री हूँ और तू मने चलवा रो कई री है।' यहाँ तक कि इंजेक्शन व जीवन में पहली बार प्लास्टर चढने के डर के कारण वह डॉक्टर से भी कहती है कि डॉक्टर साहब, थे तो मने कोई दवा ने हाथ पे मसरवा रो टूब दई दो। मने कई नी वियो है। पापा, भैया और मेरे द्वारा दादी को बहुत समझा-बुझाकर और मान-मनुहार कर रविवार को प्लास्टर चढवाने के लिए राजी किया जाता है।उन्हें रविवार को रतलाम में प्लास्टर चढवाने के बाद मैं सोमवार को अपने काम पर अर्थात इंदौर लौट आती हूँ।
मेरे इंदौर आने के बाद मंगलवार से दादी की तबीयत बिगड़ना शुरू होती है और मंगलवार से रविवार तक वह इस स्थिति में पहुँच जाती है कि उनका खाना-पीना, उठना, चलना, बोलना सब बंद हो चुका होता है। मैं 10 जुलाई 2011, रविवार को ही उनसे मिलकर आई हूँ पर उनका सूजन से फूला चेहरा, चिपकी हुई आँखे व बिस्तर से चिपके हाथ-पैर देखकर मैं दंग रह गई और अपने आँसू रोक नहीं पाई। हालाँकि अभी भी उनके पास उनके स्नेहीजनों का हुजूम जमा है पर आज की स्थिति में लगातार तीन-चार दिनों से आँखे बंद होने के कारण ना तो वह उन्हें देख पा रही है और मुँह बंद होने की वजह से ना ही वो उन्हें कुछ कह पा रही है। यहाँ तक कि अब उनके शरीर ने धीरे-धीरे बदबू मारना व गलना भी शुरू कर दिया है। शायद इसे ही कहते कैंसर का विकराल व विभत्स रूप। जिसने 8 साल बाद एक बार फिर से उन पर अपना रंग जमाना शुरू कर दिया है।
भीतर ही भीतर उनका शरीर किस कदर दर्द से कराह रहा होगा। उसे शब्दों में बँया कर पाना भी मेरे लिए बड़ा मुश्किल है। आज मुझे धार्मिक आस्था रखने वाले अपने बड़े-बुर्जुगों की वह बात याद आती है कि इंसान को अपने कर्मों का फल इसी धरती पर भुगतना होता है। कर्मों का फल भुगते बगैर उसकी मौत नहीं होती है।
ब्रेस्ट से आरंभ होकर फेफड़े, हड्डियों और अब दादी की किडनी को अपनी गिरफ्त में ले चुका कैंसर उन्हें जिंदगी की बजाय मौत से प्रेम करना सीखा रहा है। पर ऐसी स्थिति में भी मौत और जिंदगी दोनों में से कोई भी हार मानने को तैयार नहीं है। यही वजह है कि उनकी साँसों की रिदम रूक-रूककर भी चल रही है। दोस्तों, सच कहूँ तो दादी की स्थिति देखकर मैं कभी अपने किसी दुश्मन को भी कैंसर होने की बददुआ नहीं दूँगी। यह बीमारी जिंदगी को या तो निगल जाती है या फिर इंसान को तिल-तिल मरने को छोड़कर जिंदगी को मौत से भी बदतर कर देती है।
जीवन सम्हालने की शक्ति मिले आपकी दादीजी को।
ReplyDeleteशुक्रिया प्रवीण जी।
ReplyDeleteभगवान से प्रार्थना करता हूँ कि दादीजी को जल्दी से स्वस्थ करे।
ReplyDeleteशुक्रिया सागर जी। यह सच है कि जहाँ दवा बेअसर हो जाती है। वहाँ दुआ ही काम आती है।
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