फिर दहल गई मुंबई

26/11 की तरह 13 जुलाई को भी जिंदादिल लोगों की मुंबई एक बार फिर धमाकों के कंपन से दहल व सहम गई है। शाम ढलते ही मुंबई की वह चहल-पहल रौंगटे खड़े कर देने वाले सन्नाटे में तब्दील हो गई है। चीख, चीत्कार और न्याय की गुहार बस मुंबई में तो अब यही सुनाई दे रहा है। अजमल कसाब अब तक जिंदा है और हर बार मर रहा है कोई बेकसूर आम आदमी। क्या हम पाकिस्तान की तरह अपने देश में भी आतंकियों व दगाबाज लोगों का शासन लाना चाहते हैं। यदि नहीं तो फिर क्यों नहीं हम एक इंसान की जान की कद्र समझते है?
              मेरा प्रश्न आप सभी से है कि हर बार धमाके का शिकार आम आदमी ही क्यों बनता है, कभी कोई राजनेता क्यों नहीं? ऐसा इसलिए कि कही न कही देश की गुप्त सूचनाएँ हमारे ही वफादार राजनेता व उच्च पद पर आसीन लोगों के माध्यम से आतंकियों तक पहुँचती है। हम माने या न माने पर आज हमें सबसे बड़ा खतरा हमारे देश के भीतर बैठे गद्दार व दगाबाज लोगों से हैं। आतंकियों को भारत की जेलों में शरण देना तो हमारी फितरत ही है। यदि आप साँप को प्यार से अपने पास बैठाकर पुचकारोगे तो इसका यह अर्थ नहीं कि साँप अपने जहरीले दंश को भूल आपको प्यार का जवाब प्यार से देगा। वह किसी दिन आप ही को डस लेगा।
         फाँसी की सजा देने के बाद भी हम अपराधी व आतंकी को जेल में सुरक्षित रखते हैं ताकि उसे छुड़ाने के लिए चार ओर आतंकी आकर देश में तबाही मचाएँ। वाह रे मेरे देश के कानून, आखिर कब तक तुम आतंकियों को जेल में सड़ाते रहोगे? अब वक्त आ गया है अन्ना की तरह विरोध के स्वर मुखरित करने का। जिससे यह बेहरी सरकार जागे और हरकत में आए। जागो भारतवासी अब तो जागो।

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दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण।

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