स्वामी के मन में कब बसेगा साँईं ?

कहते हैं सत्ता, पद, स्त्री और माया का मोह छोड़े नहीं छुड़ता। यह मोह जब अति की सीमाएँ लाँघ जाता है तो व्यक्ति की बुद्धि विपरीत हो जाती है और प्रकाण्ड से प्रकाण्ड ज्ञानी मनुष्य भी विक्षिप्तों की तरह व्यवहार करने लगता है। इसी को ‘विनाशकाले विपरित बुद्धि’ भी कहा जाता है। हिंदुओं के सम्माननीय धर्मगुरू स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी का शिर्डी के साँईबाबा पर दिया विवादास्पद बयान कुछ इसी प्रकार की मानसिकता व ज्ञान के अतिरेक का परिचायक है। जिसके चलते आज उनकी नम्रता व शिष्टता धर्म की संर्कीण अलमारी में कैद होकर बौखलाहट व झुंझलाहट के रूप में सामने आ रही है। धर्म व आध्यात्म के प्रति लोगों की आस्था जागृत करने वाले धर्मगुरू का साँईबाबा व गंगास्नान के वर्जन पर दिया गया बयान उनकी बौखलाहट व ज्ञान के दंभ व बौखलाहट के अलावा और कुछ नहीं है। जब ईश्वर और प्रकृति जीव मात्र में जात-पात व रंग-रूप का भेदभाव नहीं करती तो आप और हम इस विभेद को जन्म देने वाले कौन होते हैं, क्या हम ईश्वर से भी बड़े है या बड़े होने का नाटक कर महान बनना चाहते है? हम वहीं लोग है, जो सड़क पर पड़े पत्थर को भेरू मानकर, पेड़ को ईश्वर क...