गैंगरेप पर राजनीति -

गैंगरेप, नारी की आज़ादी पर मारा गया सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन का वह करारा तमाचा है, जो खुद को आज़ाद कहने वाली नारी की आवाज़ को सदा के लिए खामोशी के अँधेरों में गुम कर देता है। इस तमाचें की मार शिकार महिला के साथ ही समस्त नारी जाति पर भी पड़ती है। बलात्कार की असहनीय पीड़ा को सहती एक नारी है पर ऐसी घटना के नाम पर जाती है धुत्कारी हजारों-लाखो नारियां। बलात्कार किसी एक का होता है पर खौफ के मारे हजारों लड़कियों की आज़ादी पर बेडि़याँ लगा दी जाती है। घटना एक स्थान पर लेकिन सन्नाटा हर जगह। ऐसे में समाज में सम्मान की दुहाई देने वाले लोग घरों में कैद हो जाते हैं और बैखोफ घुमते हैं वो दरिंदे, जो बैखोफ इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते है।
बंदिशे हमेशा नारियों पर लगाई जाती है। कभी उनके छोटे वस्त्रों को दोष दिया जाता है तो कभी चंचलता और मांसल सौंदर्य को, लेकिन पुरूष की निगाहों की खौट पर कभी समाज पाबंधी नहीं लगाता। पुरूषों को अपना मनचाहा पहनने और करने की आज़ादी है लेकिन स्त्री को नहीं। आखिर क्यों? यह प्रश्न भी हमारा है और इसका उत्तर भी हमारे ही पास है। आखिर कब तक हम इन सब चीजों के पीछे समाज के कायदें-कानूनों की दुहाई देकर बचते रहेंगे। आखिर समाज का एक अहम हिस्सा हम भी तो है। हमसे समाज है तो फिर हम बदलाव की अगुवाई क्यों नहीं करते?  

दिखावे के नाम पर हम भीड़ तो जुटा सकते हैं पर उस भीड़ के माध्यम से दोषियों को सजा नहीं दिला सकते। इसका कारण स्पष्ट है – हमारा भय, राजनीति और स्वार्थ। तभी तो ईमानदार लोग कम और नारी की अस्मिता को लूटने वाले ही उसकी आबरू बचाने की बात करते हैं। निर्भया के वक्त भी यहीं हुआ था और आज बदायूं में भी यहीं हो रहा है। क्या यही हैं असली राजनीति, जो इस देश में अक्सर मानवता को झकझोर देने वाली घटनाओं पर की जाती है। नेताजी सज-धजकर औपचारिकता निभाने घटनास्थल पर जाते हैं और शोक संवेदना की बयानबाजी कर दिल्ली की सड़कों पर हमेशा के लिए गुम हो जाते हैं। उसके बाद तो नेता दर्शन, देव दर्शन की तरह दुर्लभ व दुष्कर हो जाते हैं। सुनवाई कहीं नहीं होती। 

साँप के निकलने के बाद जैसे लाठी पीटी जाती है, वैसे ही हमारे देश में बलात्कार के बाद पीडि़ता के दम तोड़ते ही उसकी लाश पर राजनीति की जाती है। मुझे यह कहने में तनिक भी अफसोस नहीं है कि यह उन्हीं सुप्त लोगों का देश है, जो रातभर जागती सड़कों पर निर्भया की करूण पुकार को सुन सका और न ही आज यूपी के बदायूं की बच्चियों की नौची हुई पेड़ सी लटकी लाशों को देख जागा है। हमारे राजनेता तो इंतजार कर रहे हैं किसी अगली बड़ी घटना का, जिस पर दोबारा केंद्र सरकार व राज्य सरकार अपने राजनीतिक विरोधों की रोटियाँ सेक सके। ऐसी घटनाओं पर विरोध कम और सौदेबाजी अधिक होती है। विधायक और सांसद मध्यस्थ बन खुलेआम सौदा करते है - नोट और सामाजिक सम्मान के बीच, जिसमें अंतत: जीत नोटों की राजनीति की होती है। जिसे नारी की आबरू लुटने वाले दुर्योधनों की जान बक्शने व अपना मुँह बंद रखने के ऐवज में दिया जाता है। राजनेताओं को अपना माई-बाप मानने वाले गरीब माता-पिता के लिए उनकी बेटियाँ तो दोबारा जिंदा नहीं हो सकती इसलिए जीवन की गुजर-बसर के लिए नोटो का प्रलोभन यहाँ भी अक्सर राजनीति के आगे नतमस्तक हो जाता है। आखिरकार ज्यादा हो-हल्ले से बदनामी उनकी दिवंगत बेटियों की ही होगी। उसकी आबरू लुटने वाले दुर्योधनों की नहीं। कोई उस नारी को शहीद नहीं कहेगा, जिसने आ‍खरी दम तक दरिंदों का ग्रास बनने से इंकार किया। वह अपनी आखरी सांस तक जिंदगी के लिए लड़ती रही और अंत में जब लड़ते-लड़ते हार गई। तब मौत को गले लगा लिया। ऐसी बलात्कार पीडि़ता को कोई शहीद नहीं कहेगा। उल्टा उन पर व उनके परिवार पर फब्तियाँ कसी जाएगी। आखिर यह कब तक चलेगा? मान, सम्मान, प्रतिष्ठा, मर्यादा, जिसे हम अपने सामाजिक सम्मान का परिचायक मानते हैं।
आखिरकार वह कब तक सरेआम बिकती रहेगी? कहते हैं अंधेरे से जंग अगर जितनी हो तो मशालें हर हाथ में जलनी चाहिए। ठीक उसी तरह गैंग रेप की घटनाओं का विरोध करने के लिए हम सब को आगे आना होगा और एकस्वर में इन घटनाओं की निंदा करनी होगी। इस विरोध का माध्यम कोई भी हो सकता है। नारी पर हो रहे अपराधों के खिलाफ विरोध की आवाज़ तब तक उठनी चाहिए। जब तक बलात्कार के दुष्कर्मियों को फाँसी के तख्ते पर न लटका दिया जाएँ। याद रखिएँ केवल हो-हल्ला करने से कुछ नहीं होगा। हमें अब आगे आकर ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाले दरिंदों को सामने लाकर उन्हें सख्त सजा दिलाने तक आवाज़ उठानी होगी।

- गायत्री शर्मा     

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