हे ईश्वर! तू कहाँ है?
ढ़ूढँती हूँ तुझे पहाड़ों, कंदराओं में
कहते है तू बसता है मन के भावों में
पुष्प, गंध, धूप क्या करू तुझे अर्पित?
खुश है तू अंजुली भर जल में
तुझमें मुझमें दूरी है कितनी?
मीलों के फासले है या है समझ अधूरी
क्या तू सचमुच बसा है पाषाण प्रतिमाओं में?
या तू बसा है दिल की गहराईयों में
आखिर कब होगा तेरा मेरा साक्षात्कार?
मिलों मुझसे पूछने है तुझसे कई सवाल
अब मन के इस अंधकार को दूर भगाओं
हे ईश्वर जहाँ भी हो अब तो नजर आओ।
- गायत्री शर्मा
(22 नवंबर 2008 को मेरे द्वारा मेरे व्यक्तिगत ब्लॉग aparajita.mywebdunia.com पर मेरे द्वारा यह कविता पोस्ट की गई थी।)
मेरी यह कविता आपको कैसी लगी? आपके विचारों से मुझे अवश्य अवगत कराएँ।
कहते है तू बसता है मन के भावों में
पुष्प, गंध, धूप क्या करू तुझे अर्पित?
खुश है तू अंजुली भर जल में
तुझमें मुझमें दूरी है कितनी?
मीलों के फासले है या है समझ अधूरी
क्या तू सचमुच बसा है पाषाण प्रतिमाओं में?
या तू बसा है दिल की गहराईयों में
आखिर कब होगा तेरा मेरा साक्षात्कार?
मिलों मुझसे पूछने है तुझसे कई सवाल
अब मन के इस अंधकार को दूर भगाओं
हे ईश्वर जहाँ भी हो अब तो नजर आओ।
- गायत्री शर्मा
(22 नवंबर 2008 को मेरे द्वारा मेरे व्यक्तिगत ब्लॉग aparajita.mywebdunia.com पर मेरे द्वारा यह कविता पोस्ट की गई थी।)
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