बहन की रक्षा करने में कितने कामयाब हुए है हम?
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गायत्री शर्मा
यह रिश्ता है प्रेम और विश्वास का, जिसमें औपचारिकताएँ गौण है और विश्वास
सर्वोपरि। हम बात कर रहे हैं भाई-बहन के पवित्र रिश्तें की। जिसमें प्रेम की मधुर
स्मृतियों को संजोने के लिए ‘रक्षाबंधन’ का पर्व मनाया जाता है और कलाई पर रेशमी
धागा बाँधकर रक्षा का संकल्प लिया जाता है। यदि हम प्रतीकात्मक रूप में रक्षाबंधन
को समझे तो रक्षा का संकल्प कोई भी ले सकता है फिर चाहें वह भाई हो, मित्र हो,
पिता हो या फिर पति ही क्यों न हो। बशर्ते कि उस संकल्प में जिम्मेदारी का अहसास व
संकट के समय रक्षा करने का माद्दा भी होना चाहिए। लेकिन बनावटी रिश्तों की हमारी
जिंदगीयों में आज रेशमी धागों की चिकनी गाँठों की तरह भाई का बहन के लिए लिया गया
रक्षा, प्रेम व विश्वास का संकल्प भी बहुत जल्द टूट जाता है और एक-दूसरे से
औपचारिक व सामाजिक रिश्तें निभाकर भाई-बहन एक-दूजे से बेखबर बन फिर से अपनी
अलग-अलग दुनिया में रम जाते हैं।
यह जरूरी नहीं है कि रक्षाबंधन के दिन केवल भाई-बहन का रिश्ता ही जोड़ा जाएँ।
हम चाहें तो मित्र, पति, भाई या पिता के किसी भी रिश्तें को रक्षा के मजबूत सूत्र
से बाँध सकते हैं। ऐसा करना कोई नई बात नहीं है। कभी भाई के हाथों में राखी बाँधकर
तो कभी पिता के हाथों में पूजा का पवित्र लाल धागा बाँधकर, कभी दोस्त की कलाई में
फ्रेंडशिप बेंड बाँधकर तो कभी पति के हाथों में ब्रेसलेट पहनाकर वर्षों से हम ऐसा
करते भी आ रहे हैं। हालाँकि वर्तमान में औपचारिकताओं के चलते इन रिश्तों के भावों
को समझकर उन्हें बरकरार रखने में हम अब तक पूरी तरह से कामयाब नहीं हुए है। तभी तो
खूनी रिश्तों के साथ ही सामाजिक रिश्तों में भी विश्वास व सुरक्षा का ताना-बाना उस
वक्त टूटकर बिखर जाता है, जब किसी महिला पर सरेआम अत्याचार होता हैं और तमाशाबीन
पुरूषों की भीड़ आँखे फाड़-फाड़कर ऐसे दृश्य का लुत्फ उठाती हैं। रिश्तों में
पवित्रता के भावों के साथ ही मानवता को ताक में रखकर आखिरकार ये पुरूष उस वक्त
पति, भाई, मित्र, पिता में से कौन से रिश्तें में ईमानदारी निभा रहे होते हैं? इस
प्रश्न का सीधा सा जवाब है - अमानवीयता के रिश्तें को। यह अमानवीयता ही है जिसके
हमारे यहाँ केवल जीवित महिलाओं के साथ ही नहीं बल्कि महिलाओं की लाशों के साथ भी
राजनीति की जाती है। बलात्कार की भेंट चढ़ी नग्न लाशों पर कैमरे के फ्लश चमकाएँ
जाते हैं और फेसबुक, व्हाट्सएप्प पर गंदी कमेंट्स के चटखारें लेकर उस तस्वीर व
वीडियों की धड़ल्ले से शेयरिंग की जाती है। बलात्कार के मामलों में पुरूषों की
हैवानियत या दुष्चरित्र की चर्चा नहीं होती बल्कि महिलाओं के कम कपड़ों व चरित्र
को लेकर राजनीति होती है। ऐसे में क्या आपको रक्षाबंधन महज एक रेशम की डोर बाँधने
की औपचारिकता नहीं लगता?
यह कहने में मुझे कोई खेंद नहीं है कि आज़ हम बनावटी रिश्तों की जिंदगी जी रहे
हैं और औपचारिकताओं के नाम पर अपनी जिम्मेदारियों से इतिश्री कर रहे हैं।
रक्षाबंधन एक पर्व है, रिश्तों में मानवता और विश्वास को जिंदा रखने का। लेकिन हम
और आप इस मकसद में कितने कामयाब हुए है। यह तो हम बखूबी जानते है। यदि किसी बहन के
भाई कहाने वाले पुरूषों में मानवता और रिश्तों में आज विश्वास जिंदा होता तो कोई
निर्भया दिल्ली की सड़कों पर बेआबरू नहीं होती, बदायूँ में चचेरी बहने फाँसी के
फँदों पर नहीं झूलती और बरेली में बलात्कार के बाद महिला के चेहरे पर तेजाब़
फेंकने की हैवानियत की घटना सामने नहीं आती। इन घटनाओं को अंजाम देने वाले पुरूष
भी किसी न किसी बहन के भाई, पिता या मित्र ही है, सरेआम बलात्कार रूपी नग्नता का
तमाशाबीन बनने वाले भी किसी बहन के भाई ही हैं? ... मुझे लगता है कि विश्वास के
साथ मानवता को भी तख्त पर रखने वाले इन लोगों को आज ‘भाई’ कहलाने का कोई हक नहीं
है।
आज ‘रक्षाबंधन’ के दिन उन भाईयों की कलाईयों में अवश्य कंपन हो रहा होगा,
जिनकी बहनें कभी न कभी बलात्कार, छेड़छाड़, दहेज हत्या, शारीरिक प्रताडना और घरेलू
हिंसा की शिकार बनी होगी। वे स्वयं को मन ही मन कोसते हुए यह कह रहे होंगे कि बहन
की सुरक्षा और उसके प्रति जिम्मेदारी में आखिर यह हमारी ही चूक होगी, जिसके चलते
हम तो जिंदा रह गएँ पर हमारी लाडली हमसे रूठकर दूर आसमान में चली गई। अब इस घर में
न उसकी शरारतों की गूँज है और न हीं मुझ पर उसकी डाँट का डर। काश, वो फिर से जमीं
पर आ जाएँ और एक बार यह कह दें भैया, उन हैवानों को खुलेआम मत छोड़ों वर्ना हर दिन
आपकी कोई न कोई बहन सड़कों पर बेआबरू होती रहेगी। दिल से महसूस करों तो यह करूण
पुकार हैं, उन बहनों की, जो स्वाभिमान और संघर्ष की जंग में आखिरी दम तक लड़ी और
छोड़ गई पुरूषों की गंदी मानसिकता व हैवानियत की हदें पार करती घटनाओं की कड़वी
यादें। ऐसी रणचंडी बहनों को हमारे इस समाज से किसी पुरस्कार की नहीं बल्कि लोगों
से मानवता की व कानून से सख्ती की उम्मीद थी। उनके द्वारा जलाई इंसाफ की मशाल आज
हर औरत के दिल में धधकती ज्वाला बन प्रज्वलित हो रही हैं। इससे पहले कि औरत अपना
विकराल रूप इस दुनिया को दिखाएँ। सम्हल जाइएँ और सीख लीजिएँ ‘रक्षाबंधन’ के इस
त्योंहार से, जो हमें यह संदेश देता हैं कि रिश्तों में विश्वास का न केवल होना
बल्कि उस पर खरा उतरना भी बेहद जरूरी है फिर चाहें वह जन्मजात रिश्ता हो या मानवता
का रिश्ता।
गौर कीजिएँ मेरी इस बात पर कि रक्षाबंधन के दिन आपसे राखी बँधवाने वाले क्या
ये वहीं भाई है, जो दिल्ली, बदायूँ और बरेली की घटनाओं पर चुप्पी साधे बैठे रहे?
उनके मन में क्षणभर को भी यह विचार नहीं आया कि ऐसी घटनाओं की शिकार यदि मेरी सगी
बहन होती तो क्या मैं खामोश बैठता? रिश्तों में अपनों और परायों का ठप्पा लगाने
वाले ऐसे भाईयों की कलाईयों पर क्या आज उनकी बहन राखी बाँधना पसंद करेगी? शायद औरत
का स्वाभिमान उसे ऐसा करने की इज़ाजूत नहीं देगा। रिश्ता चाहें भाई-बहन का हो या
सामाजिक मानवता का। दोनों ही रिश्तों की पहली जरूरत कलाईयों पर बड़ी-बड़ी राखियाँ
सजाने की औपचारिकताओं से कहीं अधिक औरत की रक्षा के संकल्प को दुहराने की है,
जिससे समाज में फिर कभी मानवता का मखौल ना उड़े। एक भाई होने के नाते हर पुरूष को
इस दिन अपनी कलाई पर रेशम की डोर बँधवाने से पहले यह संकल्प लेना चाहिएँ कि वह न
केवल अपनी बहन की बल्कि दुनिया की हर औरत की सम्मान की रक्षा के लिए सदैव तत्पर
रहेगा। इसी संदेश के साथ आपको ‘रक्षाबंधन’ की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
सूचना : इस ब्लॉग से किसी भी सामग्री का प्रयोग करते समय सूचनार्थ मेल प्रेषित करें व साभार अवश्य देंवे। मेरे इस लेख का प्रकाशन 'खरी न्यूज डॉट कॉम' पोर्टल पर दिनांक 10 अगस्त 2014, रविवार के 'रक्षाबंधन स्पेशल' अंक में हुआ है। जिसे देखने के लिए कृपया इस यूआरएल पर क्लिक करें -
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