कितने आज़ाद है हम ?

-          गायत्री शर्मा
15 अगस्त, केवल तिरंगा फहराकर, राष्ट्रागान गाने का ही दिन नहीं है। यह दिन है देश की मौजूदा स्थिति में आम आदमी की आज़ादी पर चिंतन करने का। यह दिन है देश में भीतराघात करने वाले भ्रष्ट व दागी नेताओं से देश को आज़ाद करने का। यह दिन है पूरी तरह से आज़ाद होकर आज़ादी पर्व मनाने का। 15 अगस्त के दिन चौराहों पर लहराता यह वहीं तिरंगा है, जो किसी सैनिक के लिए कुरान, गीता, बाइबल व गुरू ग्रंथ साहिब के समान पवित्र है। जिसकी आन, बान, शान के लिए वह अपने प्राणों की आहूति देने से भी गुरेज नहीं करता, उस तिरंगे को आखिर हम कैसे उन भ्रष्ट नेताओं के हाथों में फहराने को दे सकते हैं, जो स्वयं भ्रष्टचार व अपराधों के दाग से इसे दागदार कर रहे हैं? आज आप स्वयं से यह प्रश्न कीजिए और सोचिए कि क्या हमारे देश में एक भी ऐसा ईमानदार आम आदमी नहीं है, जो देश के राष्ट्रध्वज तिरंगे को फहरा सके? क्या तिरंगे को फहराने के लिए राजनेता होना ही प्रमुख शर्त है या ‍क्या हमारे लिए राजनेता ही ईमानदार बेदाग व्यक्ति का परिचायक है?    

आज़ादी का आपके लिए क्या अर्थ है? क्या अंग्रेजों की गुलामी से आजादी को ही आप आज़ादी मानते हैं या फिर इससे अधिक भी आपके लिए आजादी का कोई अर्थ हैं? स्वतंत्रता से रहने, बोलने और घुमने-फिरने से परे भी आज़ादी का एक और अर्थ है, जिससे हम अब तक अनभिज्ञ है। कहने को तो आज हम आज़ाद है पर शायद पूरी तरह से नहीं क्योंकि कहीं न कहीं महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अशिक्षा और गरीबी के रूप में गुलामी की बेडि़याँ हमें अब तक जकड़े हुए है। यहीं वज़ह है कि सरकारें बदल-बदलकर बार-बार हम आज़ाद होने के लिए अपने पंख फड़फड़ाते हैं परंतु मौजूदा व्यवस्था के आगे बेबस होकर हर बार हम हारकर खामोश बैठ जाते हैं। आप ही बताइएं ऐसी आज़ादी के क्या माइने हैं, जिसमें अभिव्यक्ति की आज़ादी तो हैं पर कूट राजनीति के अंकुश के साथ, जहाँ मीडिया की स्वतंत्रता तो है परंतु राजनीतिक दलों के परोक्ष नियंत्रण के अधीन, जहाँ रोटी, कपड़ा और मकान की उपलब्धता तो है पर महँगाई के खूबसूरत टैग के साथ?

15 अगस्त, आज़ादी पर्व के रूप में खुशियाँ मनाने के साथ ही गहन चिंतन करने का दिन है। चितंन इस बात पर कि आखिर क्यों हम अब तक गुलाम है? क्या 67 वर्षों में हमने कभी इस गुलामी से आज़ादी की पहल नहीं की? कहने को भारत दुनिया का सबसे बड़ा ‘लोकतंत्र’ है परंतु असल में इस लोकतंत्र में ‘लोक’ की भूमिका मुहर मात्र की है और भ्रष्ट ‘तंत्र’ उस ‘लोक’ पर लगातार हावी हो रहा है। अच्छे दिनों की आस में पिछले 67 सालों से टकटकी लगाएँ बैठे लोग अब निराश हो चुके हैं क्योंकि बेरोजगारी व महँगाई के चलते अमीरी-गरीबी के मध्य खाई अब कम होने की बजाय दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है।

आज देश का युवा शिक्षित तो है पर बेरोजगार है, उसके पास हूनर व प्रतिभा है पर उसे प्रदर्शित करने का मंच नहीं है, यहीं वजह है कि आज देश का युवा रोजगार की तलाश में विदेशों की ओर पलायन कर रहा हैं। भारत का उच्च शिक्षित युवा अब अपने ज्ञान का उपयोग अमेरिका, दुबई, जापान और मलेशिया के विकास में कर रहा है और भारत की स्थिति जस से तस पिछड़े देशों में होती जा रही है। इसे हमारी मूर्खता ही कहें कि विदेशों में भारतवंशियों की कामयाबी के किस्से सुनकर हम फूले नहीं समाते हैं पर ऐसा करते समय एक बार भी यह नहीं सोचते कि यदि ये लोग भारत में रहकर भारत का नाम रोशन करते तो इससे उनके अपने देश की ही कायापलट होती। हालाँकि इससका दोष उनसे कहीं अधिक हमारी सरकार का है, जो देश के नौजवानों को नए दौर का कूड़ा समझकर उसकी अनदेखी कर रही हैं।

अब बात आती है आम आदमी की दो सबसे बड़ी समस्याओं गरीबी और महँगाई की, जिसकी गुलामी से हम आज तक मुक्त नहीं हो पाएं है। यह सरकार की आम आदमी के प्रति अनदेखी ही है, जिसके चलते गरीबों के पास न तो रहने को मकान है, न खाने को रोटी है और न ही तन ढ़कने को कपड़ा। आज देश के अधिकांश गाँवों में शौचालय नहीं है, शिक्षा के नाम पर वहाँ खंडहरों की शक्ल में तब्दील होते सरकारी विद्यालय है, जिनकी सुरक्षा भगवान के भरोसे हैं। विदेशों में जैसा होता है, उससे ठीक उलट हमारे देश में होता है। विदेशों में सरकारी महकमा आम आदमी को रोजगार, सुरक्षा व बेहतर सुविधाओं की ग्यारन्टी देता है लेकिन हमारे यहाँ जिस तंत्र को सदा अपने कार्य के प्रति मुस्तैद होना चाहिए, वह सरकारी तंत्र भ्रष्ट, सुस्त और आरामी है। तभी तो आज बाजार में प्राइवेटाइजेशन का बोलाबाला है, जो आम आदमी की मेहनत को निचौड़कर अपने बढ़ते कद के साथ सरकारी तंत्र को मुँह चिढ़ा रहा है। दुनिया तो दुनिया आज हमारा देश ही स्वयं अपनी हालत पर अट्टाहस कर रहा है। तभी तो हमारे यहाँ योजना आयोग की गरीबी की परिभाषा हवाओं में हकीकत के धरातल से परे कल्पनाओं में गढ़ी जाती है।

आम आदमी को मुँह चिढ़ाती महँगाई डायन हमारी आमदनी को इतनी अधिक तेजी से निगल रही है कि घर चलाने के लिए मजबूरन हमें कर्ज लेना पड़ रहा है। यह महँगाई डायन ही है, जिससे त्राहि-त्राहि कर हर आम आदमी के मुँह से यह निकल रहा है – ‘सखि, सैय्या तो खूब ही कमात है, महँगाई डायन खाएँ जात है।‘ फिल्म ‘पीपली लाइव’ की कहानी आज हकीकत में आम आदमी के दर्द के रूप में बँया हो रही है। महँगाई पर भ्रष्टाचार का तड़का अब आम आदमी की कमर तोड़ने की आखिरी कसर भी पूरी कर रहा है। सच में कभी-कभी तो शर्म आती है मुझे यह कहते हुए कि इस देश में ईमानदार बनने के लिए भी बेईमानी का सहारा लेना पड़ता है। यहीं कारण है कि यूपीएसी व पीएससी, सिविल जज परीक्षाओं तथा पुलिसकर्मियों की भर्ती की प्रक्रियाओं में आए दिन भ्रष्टाचार के अनगिनत मामले सामने आते हैं।

क्या होगा इस देश का? आपको नहीं लगता कि अतीत की सुनहरी यादों में कभी सोने की चिडि़याँ कहाने वाले इस देश की सारी सोने की चिडि़याँ स्विस बैंक में जाकर बैठ गई है और हम अब तक गरीबी के भम्र में चि‍रनिद्रा में सोएँ हुए है? हमारा धन राजनेताओं के आलीशान बँगलों की चकाचौंध में आज भी चमक रहा है और हम है कि अपनी ईमानदारी का परिचय देते हुए तरह-तरह के टैक्स देकर देश के विकास के स्वप्न सजाएँ हुए है। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोयला घोटाला, चारा घोटाला, स्टाम्प घोटाला ... ऐसा लगता है कि इस देश की पहचान ही अब घोटाले बन गए है और हमारे नेता घोटालेबाज। मुझे नहीं लगता कि हमारे यूँ खामोश बैठे रहने से यह देश आजा़द हो जाएगा। जागिए, मेरे देशवासियों! इससे पहले कि भ्रष्टाचार हमारी आवाज़ को कुचल दें और महँगाई हमारे गले को काट दें। अपने हक के लिए आवाज़ उठाइएँ और सही माइनों में इस देश को महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अशिक्षा और गरीबी की गुलामी से आज़ाद कर सही अर्थों में स्वतंत्रता दिवस मनाइएँ।

सूचना : कृपया इस ब्लॉग से किसी भी सामग्री का प्रयोग करते समय मुझे सूचनार्थ मेल भेजना व साभार देना न भूलें। मेरे इस लेख का प्रकाशन ‘खरी न्यूज डॉट कॉम’ पोर्टल के 15 अगस्त 2014 के अंक में हुआ है।

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