मेरे अंर्तमन की कलह

मेरे अंर्तमन की कलह
दिल और दिमाग के बीच
चलती सतत जिरह
नतीजों पर आकर
फिर से भटक जाती है
संघर्षों की मझधार में
फँसी यह नाव
हर बार गफलत के भँवर में
जाकर उलझ जाती है।
क्या बेऩतीज़ा रह जाएगी जिंदगी
या प्रश्न सुलझ जाएँगे
जीवन रहस्यों के?
परत-दर-परत
सुलझती जाएँगी
उलझनें जीवन की
मिल जाएँगे वफादार साथी
जीवन पथ के
किसी का मिलना और खोना
अब कोई चलन न बन जाएँ
जो आएँ जीवन में
बस यहीं आकर ठहर जाएँ।
-          
- - गायत्री  

    

Comments

Popular posts from this blog

महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ब्लॉगरों का जमावड़ा

नेत्रहीन बच्चियों को स्वावलम्बी बनाता 'आत्मज्योति नेत्रहीन बालिका आवासीय विद्यालय'

‘संजा’ के रूप में सजते हैं सपने