‘निकर’ में खिल रहें ‘कूलनेस के फूल’

-          गायत्री शर्मा
‘देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान’, आजकल की अजीबोगरीब फैशन को देख मेरी ज़ुबाँ पर तो बार-बार यही गाना आता है। समय के बदलाव के साथ हमारा खान-पान बदला, आचार-विचार बदलें पर ये क्या नए जमाने के फैशन ने तो स्त्री-पुरूष दोनों के पहनावें में एकरूपता लाकर सबको एक जैसी ‘निकर’ धारण करवा दी? एक जमाने में पैंट-शर्ट, धोती-कुर्ता और कुर्ते-पायजामें धारण करने वाले पुरूषों के साथ ही अब साड़ी व सलवार कमीज़ में अपने बदन को लपटने वाली स्त्रियाँ भी फैशनजनित बीमारी से ग्रसित हो बेखौफ निकरों में घुम रही है। निकरप्रेमियों से उनके इस नए फैशन प्रेम के पीछे कारण पूछों तो जवाब मिलता है कि ‘ये आराम का मामला है’। देखिएँ, जहाँ आराम का मामला हो, वहाँ हमारे खलल करने का तो सवाल ही नहीं होता इसलिए अपने प्रश्नों की पोटली को समेटते हुए निकर रूपी चड्ढ़ों पर खिल रहे फूलों को ही देखकर ही मंद-मंद मुस्कुराते हुए मैं चुपचाप वहाँ से खिसक लेती हूँ।

‘चड्ढ़ी’ का अब्बा बन अवतरित हुए ‘चड्ढ़े’ यानी कि ‘निकर’ का फैशन आजकल के नौजवानों पर इस कदर छाया है कि अब वे बाजार, ट्रेन, बस और यहाँ तक कि छुट्टी वाले दिन दफ्तरों में भी निकर पहनकर ‘कूल-कूल’ होने का अनुभव कर रहे हैं। अक्सर हम छोटे बच्चों को निकर पहनाते हैं लेकिन बच्चे भी जब बड़े थोड़े बड़े होने लगते हैं। तब वे भी निकर को ‘ना’ कह जल्दी से पैंट धारण कर बड़ा बनने के लिए प्रमोशन चाहते हैं। नौनिहालों की कमर से तो निकर निकल गई पर अंग्रेजों की इस निकर को हमारे बड़ों ने बड़ा कसकर पकड़ लिया है। आजकल के बच्चों के लिए ‘कल की बात’ बन चुकी निकर अब उनके बड़ों का ‘आज’ बन रही हैं। तभी तो बेटे-बेटी की निकर को पापा-मम्मी और पापा-मम्मी के कपड़ों को उनके बच्चे नए जमाने की फैशन मानकर शान से पहन रहें है।

यदि आपको भी फैशन के नाम पर भाँति-भाँति की प्रयोगधर्मिता की शिकार हुई निकरों व उनकों धारण करने वाले महानुभावों के दर्शन लाभ लेना है तो इसके लिए आपको अपने नजदीकी रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्मों पर आने वाली लंबी दूरी की ट्रेनों पर नज़रे गड़ानी होगी। प्लेटफॉर्म पर ट्रेन के रूकते ही आपको एक के बाद एक कई निकरधारी चूहों की तरह अपने एसी रूपी बिल से बाहर निकलकर खाने की तलाश में इधर-उधर घुमते नजर आ जाएँगे। निकरधारियों की संख्या में इजाफें व निकर की लंबाई में कमी को देखने के लिए आपको थर्ड एसी से फर्स्ट एसी कोच की ओर रूख करना होगा। इतना करते ही निकरधारियों के दर्शन की आपकी अधूरी ख्वाहिश अवश्य ही पूरी हो जाएगी। राजधानी, शताब्दी, गरीब रथ एक्सप्रेस जैसी गाडि़यों में तो ऐसे प्राणी बहुतायत में अवश्वमभावी रूप से पाएँ जाते हैं। अंग प्रदर्शन, फैशन, स्टेटस, कंफर्ट आदि बहाने है निकर को पैंट, सलवार व साड़ी का रिप्लेसमेंट बनाने के। नौजवान तो नौजवान आजकल बुर्जुग अंकल-ऑटी भी निकर पहनना अपना स्टेटस सिंबल समझ रहे हैं। नन्हीं-नन्हीं जिस दुर्लभ निकर के दर्शन कल तक हमें बच्चों की स्कूल यूनिफॉर्म में व आरएसएस के कार्यकर्ताओं की कमर पर होते थे वहीं दुर्लभ निकर अब सुलभता से 24 से लेकर 84 साइज़ तक की कमर में फिट बैठ नौजवानों से लेकर बुर्जुगों तक को फैशन के नाम पर हिट करा रही है।
आजकल तो ‘बड़े लोग, छोटी निकर’ का चलन भी जोरों पर है। जितना बड़ा आपका ओहदा, उतनी ही छोटी आपकी निकर। यह सब देखते हुए अब वह दिन दूर नहीं है जब ‘मोदी कुर्ते’ की तरह ‘राहुल निकर’ भी बाजारों में बड़े ब्रांड के रूप में अवतरित हो धड़ल्ले से बिकेगी, जिसे आप और हम प्री बुकिंग कर सबसे पहले खरीदकर पहनना चाहेंगे। आखिर आराम का मामला जो है। अंत में ‍चलते-चलते सभी निकरधारी अंग्रेजों को प्रणाम करते हुए मैं उन्हें धन्यवाद देना चाहूँगी कि गर्मी की मार झेल रहे भारत में कम से कम उनकी निकर के फूल व पत्तियाँ तो हमें कुछ राहत का अहसास करा रहे हैं।
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सूचना : मेरे इस लेख का प्रकाशन उत्तरप्रदेश के प्रमुख दैनिक समाचार-पत्र 'जनवाणी' के 9 जुलाई 2014 के अंक में व मध्यप्रदेश के उज्जैन शहर से प्रकाशित सांध्य दैनिक 'अक्षरवार्ता' के 7 जुलाई 2014 के अंक में हुआ है। कृपया इस ब्लॉग की किसी भी सामग्री का प्रयोग करते समय साभार अवश्य देंवे व इस संबंध में मुझे सूचनार्थ मेल या संदेश भेंजे। 

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