हास्य का ‘हुल्लड़’ हो गया गुम
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गायत्री शर्मा
साहित्य जगत में
हास्य-व्यंग्य का एक चमकता सितारा आज आसमान का सितारा बन बादलों की भृकुटी के बीच
सज गया। काव्य मंचों पर ठहाकों की गुदगुदी बिखेरने वाला वह कवि हँसते-हँसते दुनिया
को अलविदा कह गया। जाते-जाते छोड़ गया वह प्रकृति को खुशनुमा मौसम में हम सभी को
हँसने-मुस्कुराने के लिए। व्यंग्य लेखन व प्रस्तुतिकरण के अपने अलहदा अंदाज से
सुशील कुमार चड्ढ़ा ने व्यंग्य जगत में अपनी एक ऐसी पुख्ता पहचान बनाई थी, जिसके
समकक्ष खड़े रहना किसी मामूली व्यंग्यकार के लिए एक दिवास्वप्न के समान ही था। सही
पहचाना आपने, मैं बात कर रही हूँ साहित्य जगत में हास्य-व्यंग्य के सशक्त
हस्ताक्षर सुशील कुमार चड्ढ़ा की, जिसे काव्य के रसिक श्रोता ‘हुल्लड़ मुरादाबादी’
के नाम से जानते हैं। काव्य जगत में वर्षों से टिमटिमाता यह सितारा शनिवार शाम
हमें अलविदा कह अकेले ही निकल पड़ा उस लंबे सुनसान सफर पर, जहाँ यह हँसाने वाला तो
है पर उसकी कविताओं पर दाद देने वाले श्रोता काफी पीछे छूट गए है।
कहते हैं जिस पर साक्षात्
माँ सरस्वती की कृपा होती है उसके लिए कोई विधा नामुमकिन नहीं होती। माँ सरस्वती
के लाडले हुल्लड़ जी ने वीर रस की कविताओं से साहित्य जगत में अपना पहला कदम रखा।
देखते ही देखते वीर रस का यह कवि हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में भी एक बड़ा व मशहूर
नाम हो गया। हरफनमौला हुल्लड़ जी कवि होने के साथ ही एक बेहतरीन अदाकार, शायर व
गायक भी थे। एक कवि के रूप में हुल्लड़ जी ने समाज की समस्याओं का अपनी कविताओं
में बखूबी प्रस्तुतिकरण किया। गंभीर विषयों में हास्य का पुट पैदा करना व ठहाकों
की चुटकियाँ भरना केवल हुल्लड़ जी के ही बस की बात थी। आज भी
उनकी कविताएँ, शायरी व दोहे बड़ी ही पाकीज़गी के साथ पाठकों पर व्यंग्य की फुहारें
बिखेरते प्रासंगिक प्रतीत होते है। उनमें न तो अश्लीलता की गंदगी है और न ही सस्ती लोकप्रियता के चोचले।
हास्य-व्यंग्य के बहाने हुल्लड़ जी ने आम आदमी
की समस्याओं जैसे भ्रष्टाचार,
मँहगाई, सत्ता लोलुभता आदि पर जोरदार कटाक्ष किए। ‘कोई
सीट पर बैठा था,
कोई खड़ा था। जिसे खड़े होने की भी जगह नही मिली वो सीट के
नीचे पड़ा था….’ भारतीय रेल की बदहाल
स्थिति के दृश्य को जीवंतता व व्यंग्यात्मकता प्रदान करने का यह हूनर हुल्लड़ जी की लेखनी के बूते की ही बात थी। व्यंग्य के
अंदाज में गंभीर बातों को भी हु्ल्लड़ जी ने कुछ इस अंदाज़ में बँया किया - ‘इक चपरासी को साहब ने कुछ ख़ास तरह
से फटकारा, औकात न भूलो तुम अपनी यह कह कर चाँटा दे मारा‘, ‘जिंदगी
में मिल गया कुरसियों का प्यार है, अब तो पांच साल तक
बहार ही बहार है, कब्र में है पाँव पर, फिर भी पहलवान हूँ, अभी तो मैं जवान हूँ...।’ अमूमन कवि अपनी कविताओं
में लड़कियों से ईश्क फरमाते हैं पर हुल्लड़ जी अपनी कविता में न केवल मँहगाई, भूख
और गरीबी को अपनी प्रेमिका बताते हैं बल्कि इन तीनों की कृपा से तकलीफें झेल रहे
आम आदमी के दर्द को भी कुछ इस अंदाज़ में व्यक्त करते हैं - ‘भूख, मँहगाई, गरीबी इश्क मुझसे कर
रहीं थीं, एक होती तो
निभाता, तीनो मुझपर मर रही थीं’। न केवल कविताएँ बल्कि दोहों में भी हुल्लड़ जी ने ‘गागर में सागर’ भरकर यह
सिद्ध कर दिया कि जो असली कलाकार है। वह साहित्य की हर विधा गीत, गज़ल, दोहे व कविता
की हर कसौटी पर खरा उतरने की महारथ रखता है। अंत में
चलते-चलते मशहूर व्यंग्यकार हुल्लड़ मुरादाबादी को विनम्र श्रृद्धांजलि के साथ ही मैं आपके छोड़ चलती हूँ हुल्लड़ जी के स्वाभिमान के परिचायक इस दोहे
के साथ –
‘मिल रहा था भीख
में, सिक्का मुझे सम्मान का
मैं नहीं तैयार था, झुक कर उठाने के लिए।‘
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सूचना : मेरे इस लेख का प्रकाशन रतलाम, मध्यप्रदेश से प्रकाशित होने वाले सांध्य दैनिक समाचार पत्र 'रतलाम दर्शन' व उज्जैन, मध्यप्रदेश से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्र 'अक्षरवार्ता' में दिनांक 13 जुलाई 2014, रविवार के अंक में हुआ था। कृपया इस ब्लॉग से किसी भी सामग्री के प्रकाशन पर साभार दें व सूचना संबंधी मेल अवश्य करें।
श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, निश्चय कर अपनी जीत करूँ - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआपका बहुत-बहुत आभार ब्लॉग-बुलेटिन।
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