बूँदों ने छेड़ा है प्रीत का जलतरंग
-
गायत्री शर्मा
मन में कल्पनाओं का जलतरंग बजने लगता है, जब बारिश की बूँदे बादलों से गिरकर गालों पर अठखेलियाँ करती है,
पत्तों पर फिसलती है, माटी पर मचलती है। पिया की दूत बनकर आई शीतल बूँदे जब विरह
की तपिश में तप्त तन को भिगो देती है तो विरहणी का तन-बदन मिलन का संदेश लेकर आई बूँदों
के स्पर्शमात्र से सिहरकर थर्रा उठता है। कल तक खुलकर मचलते उसके केश आज होठों की
थरथराहट सुन लज्जावश सहम उठते हैं और कैद कर लेते हैं प्रेम के अहसास के इस
खुशनुमा मंज़र को अपनी काली घटाओं की सिकुड़न भरी चादर में। प्रेमी-प्रेमिका के मिलन
के इस महापर्व पर धरती की सौंधी महक फिजाओं में चहुँओर प्रेम की खुशबू बिखेर देती
है। जिससे आनंदित हो मयूर मोहनी मुद्रा में नृत्य करने लगता है और पेड़ों के पात भी
प्रेम के इस उत्सव में मधुर धुनों की तान छेड़ देते हैं। उन्माद, उल्लास और
प्रकृति के यौवन के इस पर्व पर सृष्टि का हर जीव अपने-अपने तरीकों से खुशियाँ मना
रहा है। आखिर हो भी क्यों न बरखा मिलन, प्रेम और खुशहाली का पर्व जो है।
विरह की तपिश में तप्त नायिका की विरहवेला अब जल्द ही समाप्त होने वाली है। प्रेम
के इस पर्व में जहाँ प्रेमी-प्रेमिका का मिलन हो रहा है। वहीं बूँदों के आलिंगन से
बादल और धरा का भी मिलन हो रहा है। पपीहा पीहू-पीहू कर प्रेम धुन छेड़ रहा है। शाख
और पात मिलकर प्रेम रूपी सुवासित पुष्पों को खिला रहे हैं, खेतों में माटी और
पानी के मिलन से बीजों में खुशियों के अंकुरण फूटने लगे हैं। बरखा की पूर्व सूचना
लिए आई बयार फिजाओं में विरह की तपिश को काटने वाली ठंडक घोल रही है, जिससे सूर्य
की तपिश से अशांत मन को शांति व सुकून का अहसास हो रहा है। ठंडी बयारें बादलों की
मस्ती में मचलती हुई मचल-मचलकर, उमड़-घुमड़ के नृत्य के साथ प्रियतम के आने का,
खेतों में फसलों के अंकुरण का, मँहगाई पर विजय का शुभ संदेशा लेकर आई है। ऐसे में
हर कोई बरखा रानी के स्वागत को आतुर हो रहा है। इंतजार की घटती घड़ी में टकटकी
लगाई आँखों पर जब टिप-टिप कर बरखा की बूँदे पड़ती है। तब लंबा इंतजार भी बूँदों की
झमाझम में गुम हो जाता है और झूम उठता है हमारा तन-बदन बूँदों की लडि़यों के संग। खेत
जोतकर बरखा की राह तकता किसान बारिश की बूँदों को देख उसे अपनी दोनों हथेलियों
में सहेजकर आँखों से लगाता है और धन्यवाद देता है उस इंद्र देव को, जिनकी कृपा से
बरखा रानी आज उनके खेतों में दस्तक देने जा रही है तो वहीं नायिका भी पिया मिलन की
प्यास जगाती प्रेम की इस बरखा में भीगकर अपनी खुशी का इज़हार कर रही है। बूँदों की
झडि़यों का यह मौसम मचलन, सिहुरन और छेड़खानी का मौसम है। भौंर की दस्तक के साथ
घर-आँगन में पधारी इस बरखा में सब कुछ उजला-उजला और खिला-खिला सा नज़र आ रहा है।
हर चेहरे पर खुशियाँ छाई है। कवियों की कल्पनाओं की नाव भी अब बरखा के पानी में हिलोरे
मारने लगी है। बरखा के एक ऐसे ही सुंदर दृश्य की कल्पना करते हुए कवि सुरेन्द्रनाथ
मेहरोत्रा की कलम कुछ इन शब्दों में अपनी कल्पनाओं को उकेरती है –
‘बरखा ने रंग बिखेरे हैं
कजरी ने चित्र उकेरे हैं
बदरा झूलों पर ठहरे हैं
मन भावन चित्र सुनहरे हैं।‘
कजरी ने चित्र उकेरे हैं
बदरा झूलों पर ठहरे हैं
मन भावन चित्र सुनहरे हैं।‘
प्रेम की इस ऋतु में रंग-बिरंगे पुष्पों की महक से नायिका का रूप-लावण्य भी
निखरने लगा है, विरह के अश्रु बारिश की बूँदों से धुल गए है और प्रकृति संग विरहणी
भी तरह-तरह की साज-सामग्री से स्वयं को श्रृंगारित कर रही है। वर्षा की हर बूँद
जैसे तन में स्फूर्ति का संचार कर रही है। हर कोई प्रकृति के यौवन के इस पर्व को
खुशियों के पर्व की तरह मना रहा है। आखिर हो भी क्यों है, यह बारिश की बूँदे इस
धरा के प्राणियों के लिए ‘जीवनधन’ है। जिसके बगैर सब ‘सून’ है। तभी तो बरखा का
गुणगान करते हुए गीतकार मनोज श्रीवास्तव का कोमल मन यह कह उठता है –
‘पंख पसारे बदली रानी,
चुनरी ओढ़े श्यामल-धानी;
आंचल-पट पर दृश्य जगत के,
अमित कामिनी छल-छल छलके;
वसन जो उघरे हिय ललचाए,
ले अंगड़ाई सब अलसाए;
स्निग्ध बदन को नज़र जो छुए,
गड़ी शरम से खिल गए रोएँ;
फिर मत पूछो कैसे पिघली,
लगी छलकने, ज्यों नभ-बिजली....’।
चुनरी ओढ़े श्यामल-धानी;
आंचल-पट पर दृश्य जगत के,
अमित कामिनी छल-छल छलके;
वसन जो उघरे हिय ललचाए,
ले अंगड़ाई सब अलसाए;
स्निग्ध बदन को नज़र जो छुए,
गड़ी शरम से खिल गए रोएँ;
फिर मत पूछो कैसे पिघली,
लगी छलकने, ज्यों नभ-बिजली....’।
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