‘संत’ और ‘समाज’ मिलकर करें ‘समाज सुधार’

- गायत्री शर्मा 
आस्था की चिकनी राह पर हमारे धर्म की कमजोर गाड़ी इतनी बार लुढ़की कि आज हमने ‘संत’ की जगह ‘साँई’ को ही मंदिरों से बाहर का रास्ता दिखा दिया। साँई के नाम पर सनातन संत की यह जंग अब ‘धर्म-संसद’ के वृहद रूप में मनमाने फतवे जारी करने का मंच बन चुकी है। जिसमें धर्म के नाम पर हमारी आस्था का मखौल उड़ाकर धर्म को जातिगत राजनीति का अखाड़ा बनाया जा रहा है। ऐसे में आप ही बताइएँ कि आखिर यह कैसा धर्म और कैसी ‘धर्म-संसद’ है, जिसमें धार्मिक सहिष्णुता तो गौण हो गई है और ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का भाव सर्वोपरि? बार-बार साँई प्रतिमा से अपना सिर फोड़ने वाले हिंदुओं के धर्मगुरू को आखिरकार अचानक ऐसी क्या सनक सवार हुई कि वे खिसियाई बिल्ली की तरह ‘साँई हटाओं, साँई हटाओं’ की रट लगाए बैठे है?  
         
‘संत’, व ‘समाज’ का जुड़ाव बड़ा गहरा है। जब ‘समाज’ के साथ कोई ‘संत’ जुड़ जाता है तब उस संत से हमारी समाज कल्याण की अपेक्षा करना लाजिमी हो जाता है। व्यवहारिक तौर पर ‘संत’ से अभिप्राय धार्मिक प्रवचन करने वाले व्यक्ति से कहीं अधिक समाज को नव विचार व नव दिशा देने वाले व्यक्ति से है। सही माइनों में संत की सार्थकता ही समाज सुधार में निहित है। हमारी ‘संत’ की इस परिपाटी पर शिर्डी के ‘साँई’ बखूबी खरे उतरते हैं, जिनकी कार्यशैली के साथ ही उनकी जीवन दृष्टि भी अनुकरणीय है। वह साँई ही थे, जिसने धार्मिक प्रवचनों की दुकाने खोलने की बजाय उन प्रवचनों के सार को अपने जीवन में आत्मसात करने के साथ ही समाज को भी उस पर अमल करना सिखाया। साँई ने अस्पृश्यता, जातिगत भेदभाव, दहेज प्रथा जैसी कई कुरीतियों पर वार कर समाज को एकता के सूत्र में बाँधने की कोशिश की। उन्होंने जहाँ आम आदमी के पीड़ा को अपने शरीर में महसूस किया, वहीं उन्होंने मूक पशुओं के प्रति भी दयाभाव व मानवता की अनूठी मिसाल कायम की। भिक्षा माँगकर अपना पेट भरने वाले साँई ने कभी भगवान के रूप में पूजे जाने की चाह नहीं की। उनके लिए तो भक्तों की श्रृद्धा के दिए में सबूरी की बाती होना ही पर्याप्त थी। यह साँई का उत्तम जीवन-चरित्र ही था, जिसने साँई के जाने के बाद उसे फकीर से भगवान बनाकर मंदिरों में विराजित कर दिया और अपने सराहनीय कार्यों से परोपकार में अपना जीवन बिताने वाला वह साँई आज हमारी आस्था के मंदिरों का सर्वोच्च संत बन गया।
   ‘साँई’ बनाम ‘संत’ के रूप में आज ‘साँई’ को छूछाछूत व धर्म-मज़हब के जिस कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। साँई ने तो उसके नाम पर कभी जंग ही नहीं की थी। साँई को किसी धर्म-संसद ने ‘संत’ या ‘भगवान’ नहीं बनाया है, उसे तो हमने ‘भगवान’ बनाया है क्योंकि साँई का जीवन चरित्र दुनिया के लिए सांप्रदायिक सद्भाव की एक ऐसी मिसाल है, जिससे हर संत व धर्मगुरूओं को सीख लेना चाहिए। मुझे बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज हमारे संतों के लिए ‘धर्मगुरू’ की पदवी समाज सुधार की जिम्मेदारी से कहीं अधिक ‘तू-तू, मैं-मैं’ की गंदी राजनीति करने का लाइसेंस बन गई है।        धर्म, आध्यात्म व समाज सुधार के भाव को त्यजकर हमारे धर्मगुरू अब लोगों की धार्मिक आस्था के मामलों में के साथ ही राजनीति में भी दखल देने लगे हैं। धार्मिक कट्टरता के प्रदर्शन के लिए धर्म की दुकानें आज ‘धर्म-संसद’ के एयरकंडीशनर पांडालों के रूप में सज रही है और उसमें बैठा व्यक्ति पद के मद में मनमानें फतवें जारी कर रहा है। केवल तथाकथित धर्म गुरू ही नहीं बल्कि धर्म व आध्यात्म के नाम पर हमारी आस्था से खिलवाड़ करने वाले हठी, दागी और स्वार्थी संतों के फेहरिस्त बड़ी लंबी है।       
     अहमदाबाद के संत से लेकर समझौता ब्लॉस्ट के आरोपी संत तक कई संतों का जिस्मफरोशी, हत्या, अपहरण, भ्रष्टाचार, लूट जैसे अपराधों में लिप्तता का सिद्ध होना आज समाज में संतों की भूमिका व ‘संत’ की पदवी पर सवालिया निशान लगा रहा है। ऐसे माहौल में यदि कोई संत फिल्मी कहानी में ट्विस्ट की तरह अचानक प्रकट होकर आपकी आस्था को ठोकर मार दें तो मेरी नजर में यह उस संत के अपनी जिम्मेदारी से दिग्भ्रमित होने का सूचक है। ‘धर्म-संसद’ की दुकान में अर्नगल बहस करने वाले संत की बार-बार साँई के नाम पर फिसलती जिव्हा अब उनकी बढ़ती उम्र का तकाज़ा व मानसिकता में विकृति की ओर ईशारा कर रही है। बेहतर होगा कि ऐसे संत को समाज के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी को समझते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए। जिससे कि आने वाले समय में ‘धर्म-संसद’ में धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने की पहल के शब्द गूँजे न कि मंदिर-मस्जिद व हिंदू-मुस्लिम के नाम पर कटुता की कड़वाहट।
       आपको क्या लगता है कि ‘धर्म-संसद’ के मनमानें फतवों से क्या साँई के प्रति भक्तों की आस्था कम हो जाएगी या साँई प्रतिमाएँ मंदिरों से विस्थापित कर दी जाएँगी? जी नहीं, यह तो हमारी आस्था के साँई है, जो सदियों तक हमारे दिलों में बसे रहेंगे। यह तो भक्तों की आस्था व साँई का उत्तम जीवन चरित्र ही है, जिससे प्रभावित होकर भक्त साँई को ‘राम’ और ‘रहीम’ समरूप मानकर पूजते आएँ है। सर्वधम सद्भाव के प्रतीक साँई को मंदिरों से हटाने वाले तथाकथित लोग हमारी आत्मा में बसे आस्था के साँई को आखिर कैसे हटा पाएँगे? मेरी आप सभी से अपील है कि आप धर्म, मंदिर और मस्जिद के नाम पर हो रही जंग से तौबा कर अहिंसा का मार्ग अपनाइए। यदि आप कमजोर पड़ गए तो आपके धर्म व आस्था की आयु भी अल्प हो जाएगी। आपको धर्म के नाम पर उकसाने वालों का प्रमुख लक्ष्य ही देश की एकता छिन्न-भिन्न कर लोगों को जाति व धर्म के नाम पर बाँटना है। याद रखिएँ किसी भी धर्म व आस्था के नाम पर हिंसा भड़काने का अधिकार किसी भी ‘धर्म-संसद’ को नहीं है फिर चाहे वह हिंदुओं की धर्म संसद हो या इस्लाम के फतवे।

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