कुँवारी लड़कियों की सखी ‘संजा’
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गायत्री शर्मा
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संजा |
श्राद्ध पक्ष में शाम होते ही गाँवों की गलियों में
गूँजने लगते हैं संजा के गीत। कुँवारी कन्याओं की प्यारी सखी ‘संजा’, जब श्राद्ध पक्ष
में उनके घर पधारती है तो कुँवारियों के चेहरे की रंगत और हँसी-ठिठौली का अंदाज ही
बदल जाता है। सोलह दिन की संजा की सोलह आकृतियों में मानों कुँवारी लड़कियों के
सपने भी दीवारों पर गोबर के चाँद-सूरज, फूल, बेल, सातिये, बंदनवार आदि अलग-अलग आकृतियों
में सजने लगते हैं और अपने प्रियतम को पाने की ललक उनके गीतों के समधुर बोलों में
तीव्र हो उठती है।
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मालवाचंल की संजा
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यह स्त्रियों के एक-दूसरे से सुख-दुख को साझा करने
की प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा ही है, जिसे कुँवारियाँ संजा बाई की उनकी सासु-ननद
से हुई तीखी नोंकझोक के गीतों के माध्यम से एक-दूसरे से साझा करती है। इसे हम ग्रामीण
संस्कृति में घुली मधुर संबंधों के प्रेम की मिठास ही कहेंगे, जिसके चलते दीवारों
पर उकेरी जाने वाली संजा के प्रति भी युवतियों में सखी सा अपनत्व भाव दिखाई देता
है और कुवारियाँ अपनी प्यारी संजा को अपने घर जाने की हिदायत कुछ इस अंदाज में
देती है – ‘संजा, तू थारा घरे जा, नी तो थारी बाई मारेगा कि कूटेगा कि डेली में
डचोकेगा।’ संजा गीतों में कभी गाड़ी में बैठी संजा बाई के सौंदर्य का चित्रण ‘छोटी
सी गाड़ी लुढ़कती जाय, लुढ़कती जाय, जामे बैठी संजा बाई। घाघरो घमकाती जाय,
चूड़लों चमकाती जाय, बाईजी की नथनी झोला खाय, झोला खाय‘ गाकर किया जाता है तो कभी
संजा को ‘बड़े बाप की बेटी’ होने का ताना देकर उसके अच्छे पहनावे व लज़ीज खान-पान पर
अस अंदाज में कटाक्ष किया जाता है – ‘संजा, तू तो बड़ा बाप री बेटी, तू तो खाये
खाजा-रोटी। तू पेरे मनका-मोती। गुजराती बोली बोले, पठानी चाल चाले .... ।‘
भ्राद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर अश्विन मास की
अमावस्या तक मनाया जाने वाला संजा पर्व राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा,
मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात आदि राज्यों में मनाया जाता है। मालवा-निमाड़ अंचल
में ‘संजा’ के रूप में पूजी जाने वाली ‘संजा बाई’ को देश के अलग-अलग राज्यों में
संझया, गुलाबाई, सांझी, सांझी-धूंधा आदि नामों से जाना जाता है। ‘संजा’ के सोलह
दिनों में क्रमश: पूनम का पाटला, एकम की छाबड़ी, बीज का बिजौरा, तीज का घेवर, चौथ
का चाँद, पंचमी का पाँच कटोरा, छट की छ: पंखुड़ी का फूल, सप्तमी का सातिया, अष्टमी
का बंदनवार, नवमी का नगाड़ा, दसमी का दीया, ग्यारह का गलीचा, बारस का पंखा और तेरस
से सोलहवें दिन तक किला-कोट आदि की आकृतियाँ बनाई जाती है। संजा एक ऐसा पर्व है,
जिसमें भित्ति-चित्रण की विविध आकृतियों के रूप में ग्राम्य सभ्यता के चित्रण के
साथ ही संजा के लोकगीतों के माध्यम से लड़कियों को विवाह हेतु गंभीर होने की
हिदायत भी दी जाती है। गोबर की संजा मांडने से लेकर संजा का प्रसाद बनाने व आरती
करने की सभी जिम्मेदारियाँ लड़कियों की ही होती है। इन छोटे-छोटे कार्यों के बहाने
ग्रामीण संस्कृति में लड़कियों को पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति गंभीर होने का
व वैवाहिक जीवन में सफलता का फलसफा सिखाया जाता है।
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संजा की आकृति
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यह पर्व, देश की उस समृद्ध ग्राम्य संस्कृति व
लोकगीत परंपरा का परिचायक है, जिसमें पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, चाँद-सूरज, देवी-देवता
आदि को विविध अवसरों पर पूजा जाता रहा है। संजा पर्व है उल्लास का, उत्साह का व सबसे
अधिक कुँवारी लड़कियों के कोमल स्वप्नों की ऊँची उड़ान का। वह उड़ान, जिसमें सूरज
की गर्माहट में उनके प्रेम को पाने की तीव्रता का अहसास छुपा है और चाँद की शीतलता
में सफल होने के लिए संयम रखने का सबक भी। संजा के बहाने कुँवारी लड़कियों का
मेल-मिलाप होता है और प्रसाद पहचानने के बहाने होती है उनके सपनों के राजकुमार की
खूबियों को पहचानने की बात। संजा के ये सोलह दिन कुँवारियों के लिए उनकी जिंदगी के
वे खास दिन होते हैं, जब वह अपनी सखी संजा से अपने दिल की बात करती है और संजा के
ससुराल के लिए विदा लेने पर उससे गुणवान और रूपवान पति पाने का आशीष माँगती है। संजा
के बहाने कुँवारियों के सपने सोलह दिन तक गोबर की सुंदर आकृतियों में उकेरे जाते
हैं, उम्मीदों की चमक से चमकाएं जाते है, गीतों की शिद्दत से पुख्ता किए जाते हैं,
धूप की अग्नि से महकाएं जाते है और इन सभी के माध्यम से आशा की जाती है सुयोग्य वर
व अखण्ड सौभाग्य की। मुझे उम्मीद है कि तेजी से बढ़ते शहरीकरण के इस दौर में भी
संजा के रूप में हमारी माटी की महक सदैव हमें अपनी समृद्ध लोक संस्कृति से जोड़े
रखेगी और इस समृद्ध परंपरा के साक्षी बनेंगे, संजा के सुमधुर गीत।
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मेरे इस लेख का प्रकाशन 'वृग्राम' पोर्टल, दैनिक दबंग दुनिया, दैनिक सिंघम टाइम्स आदि में हो चुका है, जिस पर जाने के लिए कृपया निम्न यूआरएल पर क्लिक करें -
‘वृद्धग्राम’ पोर्टल
पर 16 सितंबर 2014, मंगलवार की पोस्ट में शामिल मेरा लेख ‘संजा के रूप में सजते
हैं सपने’। मेरे इसी लेख का प्रकाशन रतलाम से प्रकाशित दैनिक ‘सिंघम टाइम्स’ के 16
सितंबर 2014 के अंक में हुआ है।
http://vradhgram18.blogspot.in/2014/09/sanja-parv.html#.VBhuYpSSxeA
देश के तीन राज्यों
से प्रकाशित 9 संस्करणों (इंदौर, भोपाल, उज्जैन, सागर, रतलाम, जबलपुर, ग्वालियर,
रायपुर और मुंबई) से एक साथ प्रकाशित दैनिक ‘दबंग दुनिया’ के ‘दि वूमेन’ पृष्ठों के 17 सितंबर के 17 नंबर पृष्ठ पर प्रकाशित मेरा लेख - ‘कुंवारी लड़कियों की सखी
संझा’।
बढ़िया लेख ! नयी जानकारी मिली !
ReplyDeleteशुक्रिया अरूण जी ....
ReplyDeleteEverything is very open with a precise description of the issues.
ReplyDeleteIt was really informative. Your website is very useful. Thanks
for sharing!
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