भाषा के समझिए ‘भाव’

         गायत्री शर्मा  
यह भाषा ही है, जो भावों को जन्म देती है, जो हमारी कल्पनाओं को शाब्दिक अनुभूति प्रदान करती है। भाषा को निष्प्राण समझने की भूल कभी मत कीजिएगा क्योंकि व्याकरण भाषा के प्राण है। शब्द, इसका शरीर है और ध्वनि इसकी आवाज़ है। गौर से सुनो तो भाषा बोलती भी है, आँखों से देखों तो भाषा चलती भी है और महसूस करो तो भाषा मरती भी है। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज हम अपनी पहचान, यानि कि अपनी भाषा को भूल चुके है। यहीं वजह है कि वर्ष के एक दिन ’14 सिंतबर’ को ही हम हिन्दी को याद कर अगले ही दिन फिर से अंग्रेजी के गुलाम बन जाते हैं। ऐसा करते समय शायद हम यह भूल जाते हैं कि आज हमने भाषा का त्यजन किया है परंतु जिस दिन भाषा हमारा त्यजन कर देगी। उस दिन हमारी पहचान ही हमसे खो जाएगी और हमने अपने ही देश में पराये बन जाएँगे।    
     भाषा का पतन संस्कृति का पतन है और संस्कृति का पतन, देश का पतन। किसी भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति में भाषा का सर्वाधिक योगदान होता है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होने के साथ ही हमें अपनी संस्कृति से जोड़े रखने वाली वह मजबूत गाँठ होती है, जिसकी मजबूती पर किसी देश की कामयाबी व विकास की इबारत लिखी जाती है। जिस देश की भाषा जितनी अधिक समृद्ध होती है उस देश का साहित्य भी उतना ही अधिक समृद्ध व चिरायु होता है। तभी तो कहा गया है कि किसी देश को बर्बाद करने के लिए उसे उसकी भाषा व साहित्य से दूर कर देना ही पर्याप्त है। ऐसा करने से वह देश पंगु होकर स्वयं ही लड़खड़ाकर गिर पड़ेगा। विदेशियों ने भी हमारे साथ यही किया। उन्होंने हमें अपनी भाषा और साहित्य से दूर कर दिया। जिसका असर यह है कि आज हम खान-पान से लेकर पहनावे व भाषा में भी अंग्रेजी के गुलाम बन चुके है। यह एक कटु सत्य है कि आज हम अपनी भाषा व साहित्य से इतने अधिक दूर हो गए है कि हमें न तो अपनी भाषा की लिपि व व्याकरण का ज्ञान है और न ही इस भाषा को समृद्ध बनाने वाले भाषाविदों व साहित्यकारों का। यह तो गनीमत है कि अखबारों में प्रकाशित लेखों के माध्यम से हमें 14 सितंबर को ‍’हिन्दी दिवस’ मनाए जाने की जानकारी मिलती है वर्ना यह दिन तो कबसे हमारा अतीत बन चुका होता।  
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’हिन्दी दिवस’ जिसे हम प्रतिवर्ष 14 सितंबर को मनाते हैं। करोड़ों भारतवर्षियों की राष्ट्रभाषा कही जाने वाली हिन्दी का सम्मान इस दिन केवल अखबारों में छपे लेखों, बैंकों में टंगी हिन्दी की तख्तियों और चुनिंदा हिन्दी की गोष्ठियों में ही नजर आता है और उसके बाद तो जैसे रद्दी की टोकरी में पड़े कूड़े की तरह हिन्दी को हम अपने ही देश में परित्यक्ता बनाकर मरने को छोड़ देते हैं। यह विडंबना है हिन्दी की, जो इसे अपने देश में उसे परित्यक्ता बनकर जीना पड़ रहा है, वहीं चीन और अमेरिका के लोग इसे सिर माथे बैठाकर हिन्दी सीखने व अपनाने की पहल कर रहे हैं।
     नौनिहालों को किसी भी देश का भविष्य कहा जाता है पर हमारे देश का भविष्य तो अब इंटरनेशनल व कान्वेंट स्कूलों में फ्रेंच, रूसी तथा जर्मन भाषाओं की छत्र-छाया में पल बढ़ रहा है। जिस भाषा में आज देश के नौनिहाल तालिम हासिल कर रहे हैं। उस भाषा के साहित्य के प्रति उनका आकर्षण आज उनके व्यक्तित्व, बॉडी लैंग्वैज व उच्चारण में प्रतिबिंबित भी हो रहा है। निजी तो दूर सरकारी स्कूलों के बच्चों को भी आज बारहखड़ी और अनार, आम ...  पूरी तरह से याद नहीं है। अंग्रेजी में गिनती बोलने वाले, अंग्रेजी में सोचने वाले अंग्रेजी स्कूलों के बच्चों की मानसिकता कभी ‘ए, बी, सी, डी...’ से आगे निकलकर ‘क, का, कि, की ...’ तक नहीं पहुंच पाती है। यह दोष उनका नहीं बल्कि हमारी उस शिक्षण प्रणाली का है, जिसने हमें संस्कृत व हिन्दी से दूर कर हमारे संस्कारों से भी दूर कर दिया है।
     भाषा के पतन में शिक्षण प्रणाली के साथ ही सरकार भी बराबर की भागीदार है। आज आपको बिरले ही नेता संसद में हिन्दी में भाषण देते मिलेंगे। यदि कोई ऐसी पहल करता है तो उसकी वाहवाही केवल इसलिए की जाती है कि फलाँ नेता ने ‘हिन्दी’ में भाषण दिया। ऐसा करना आज शायद इसलिए भी आश्चर्य बन गया है क्योंकि भाषा के मामले में अब हम पूरी तरह से अंग्रेज बन गए है और 100 अंग्रेजों के बीच यदि एक भी हिन्दी भाषी मिल जाएं तो यह संयोग किसी विस्मय से कम नहीं होगा। हिन्दी के मामले में जो स्थिति विधायिका व कार्यपालिका की है कमोवेश उससे कही गुना ज्यादा बुरी स्थिति न्यायपालिका में हिन्दी की है। देश के सभी उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय में कामकाज की भाषा अंग्रेजी ही है। मुझे यह कहने में बड़ा दुख होता है कि आज हमने अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को इतना अधिक पराया कर दिया है कि हिन्दी भाषी राष्ट्र में अब ‘हिन्दी दिवस’ पर हमें हिन्दी बोलने वालों का सम्मान करना पड़ रहा है। इससे पहले भाषा की दुर्गति हमारे नैतिक व सांस्कृतिक पतन का नव तांडव रचे। सम्हल जाइएं और हिन्दी को उसका खोया सम्मान दिलाइएं। याद रखिएं जब तक भाषा है, तब तक भाव है, संवेदनाएँ हैं और हमारी पहचान कायम है। जिस दिन भाषा ही नहीं रहेगी तो उस दिन हमारी स्थिति भी पशुवत हो जाएगी और हम अपने ही देश में अपनी पहचान को तरस जाएंगे। याद रखिएं हिन्दी शर्म की नहीं बल्कि शान की भाषा है। आप भी आज से हिन्दी अपनाइएं और देश के विकास में अपनी सहभागिता निभाइएं।  
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 नोट : कृपया इस ब्लॉग से किसी भी सामग्री का प्रयोग करने पर सूचनार्थ मेल भेजें व साभार अवश्य देंवे। मेरे इस लेख का प्रकाशन 14 सितंबर 2014, रविवार के दैनिक 'दबंग दुनिया' अखबार के हिन्दी दिवस विशेषांक पृष्ट पर व 'गुडगांव टूडे' अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर हुआ है। इसी के साथ ही 'वृद्धग्राम' ब्लॉग के 14 सितंबर 2014, रविवार के अंक में मेरे इस लेख को स्थान मिला है। 


Comments

Aadii said…
खालिस हिंदी का अपना ही आनंद है. हालाँकि आजकल हमारी मातृभाषा को हिंदी या उर्दू कहने की बजाए "हिन्दोस्तानी" कहना ज़्यादा उचित होगा. अच्छा लेख. पढ़कर मज़ा आया.

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