राइट टू प्राइवेसी या राइट टू इस्केप
देश के सभी नागरिकों
के लिए समान कहे जाने वाले कानून का हाई प्रोफाइल और लो प्रोफाइल लोगों के बीच आखिर
भेदभावपूर्ण रवैया क्यों? ‘राइट टू प्राइवेसी’ की दुहाई देकर किसी मामले को जाँच
हेतु सार्वजनिक होने से रोकने का अधिकार क्या केवल हाईप्रोफाइल लोगों को ही प्राप्त
है? यदि हाँ, तो इस अधिकार का प्रयोग कर किसी मामले को जाँच प्रक्रिया से पहले ही
दबा देने वाले कानून से क्या सही व निष्पक्ष न्याय की उम्मीद की जा सकती है?
यदि हम कुछ चर्चित मामलों
की बात करें तो अब तक कई नेता फोन टेपिंग व विवादित सीडी मामलों में फँस चुके हैं
परंतु सही समय पर ‘राइट टू प्राइवेसी’ के अधिकार को अपनी सुरक्षा का हथियार बनाकर
वे इन मामलों से सुरक्षित बच भी निकले है। अमर सिंह, अभिषेक मनु सिंघवी, नीरा
राडिया व रतन टाटा आदि ने समय-समय पर अपने इस अधिकार का प्रयोग कर कानून के शिंकजे
में फँसने से स्वयं को बचा लिया था। उन्हीं की तरह अब बारी है नरेन्द्र मोदी की,
जो एक लड़की के फोन टेपिंग मामले में बुरी तरह फँसते नजर आ रहे हैं। लेकिन मुझे लगता
है कि यह मामला चुनावी दंगल तक ही सुर्खियों में रहेगा। वक्त बीतने के साथ-साथ यह
मामला भी अन्य पुराने मामलों की तरह आया-गया हो जाएगा। वाह रे मेरे देश की न्याय
व्यवस्था। आखिर कब तुम पूर्णत: निष्पक्ष हो पाओगी?
- गायत्री
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