चल, उठ, दहाड़ निर्भया ...
16 दिसंबर 2012,
इतिहास के पन्नों पर बदनामी की कालिख पोतने वाला वह दिन, जिसने वैश्विक पटल पर शर्मिन्दगी
व आलोचना से भारत के दामन को दागदार कर दिया। ऐसा पहली बार हुआ, जब दिल्ली की निर्भया
की दर्द भरी चीत्कारों ने पूरे देश को भावुक कर दिया। उस लड़की की सिसकीयों भरी आह
की कल्पनामात्र से ही कठोर से कठोर माँ का कलेजा भी मुँह को आ जाता था। अपनी लाडली
से प्रेम करने वाला हर बाप कठोरता के आवरण में भावुकता से भरे भारी मन से निर्भया में
अपनी बेटी की झलक पा रहा था। 16 दिसंबर की काली रात को कभी न सोने वाली दिल्ली की खचपच
सड़कों पर अतृप्त वासनाओं की दरिंदगी का खेल सरेआम खेला गया और इस खेल में लात-घूस
के साथ लौहे की सख्त रॉड से कुचली गई एक मासूम बेटी निर्भया। जब तक इस निर्भया के
धड़कते दिल और उम्मीद की सिसकियों का तालमेल चलता रहा। तब तक न्याय की उम्मीद भी रह-रहकर
इस लाडली में दम भरती रही। उसके बाद तो सासों के तार टूटने के साथ ही जिंदगी जीने का
निर्भया का सुखद स्वप्न भी सदा के लिए उसकी मूँदती आँखों में कैद हो गया और सदा के
लिए फिजाओं में शेष रह गई यह गूँज ‘माँ, मैं जीना चाहती हूँ’।
लड़कियों की आज़ादी
पर समाज की संकुचित विचारधारा व बिगड़ते माहौल का अंकुश लगा देने वाली इस घटना पर
जहाँ खुलकर विरोध के स्वर मुखरित हुए, वहीं दूसरी ओर देश की करोड़ों बेटियों के
माँ-बाप के दिलों में रह-रहकर उनकी लाडलियों की सुरक्षा की चिंता भी सताने लगी। उस
घटना के बाद सूरज की रोशनी को अलविदा कहती हर सांझ के साथ ही घरों के किवाड़ (दरवाजे)
बंद होने लगे और उदाहरण के रूप में निर्भया गैंग रेप को याद किया जाने लगा।
मानवता के चिथड़े-चिथड़े
उधेड़ने वाली इस घटना ने एक ही रात में सत्ता के रसूकदारों को सख्त कानून बनाने व
महिला सुरक्षा के मुद्दे को गंभीरता से लेने को मजबूर कर दिया। हर बार की तरह देश
की इस बहादुर बेटी के बलिदान को लेकर भी खूब राजनीति हुई, चौराहों पर उसकी याद में
लाखों मोमबत्तियाँ जलाई गई और निर्भया के सर्मथन में करोड़ों हाथ उठे लेकिन क्या
आपको लगता है निर्भया के इंसाफ की जंग अब पूरी हो चुकी है? क्या आपको लगता है कि नाबालिग
कहकर दंड से बचने की दलील देने वाले लड़के की मानसिक स्थिति किसी बालिग लड़के के
समान परिपक्व थी? क्या गैंगरेप की इस हृदय विदारक घटना पर पीडि़ता के परिवार को त्वरित
न्याय मिलना चाहिए था और यह न्याय निर्भया की अपराधियों को फाँसी पर लटकाने की अंतिम
इच्छा को पूरा करने वाला होना चाहिए?
मेरी मानिए तो आप
भी झूठे दिलासों का झीना आवरण अब छाँट दो और हकीकत को पहचान इंसाफ के लिए हुंकार
भरों। अपने घर में किलकारियाँ भरती और बाबुल के आँगन को अपनी रौनक से रोशन करने वाली
लाखों-करोड़ों निर्भया के हक के लिए निर्भयता से सामने आएँ क्योंकि हम अब नहीं
जागे तो शायद हर साल सैकड़ों निर्भया जिस्मानी भूख के भेडि़यों की बदस्तूर भेंट
चढ़ती रहेगी। अपनी डबडबाती आँखों में आँसू के साथ न्याय के मजबूत ईरादों की बुलंदी
को भी कायम रखें और प्रश्न करें उन लोगों से, जिन्होंने कहने को तो करोड़ों के ‘निर्भया
फंड’ की घोषणा कर दी पर अब तक 1 रूपया भी किसी निर्भया के लिए खर्च नहीं किया गया।
यही नहीं देश उसी दिल्ली में निर्भया की इस पहली बरसी तक कई निर्भया लड़कियों के
जिस्म पर अपनी जीभ लपलपाने वाले भूखे दरिंदों की हवस का शिकार हुई है। क्या आज भी
महिला सुरक्षा देश के लिए एक बड़ा मुद्दा है? क्या निर्भया का मामला भी झूठें
वादों, दावों और श्रृंद्धांजलियों के रूप में सहानुभूति की राजनीति का शिकार होकर
रह गया है? क्या असल में जनता जर्नादन की हुंकार ही इस मामले को जिंदा रखे हुए है?
..... इन्हीं प्रश्नों के साथ आपको छोड़कर अंत में चलते-चलते मैं बस यही कहूँगी कि
हालांकि देश की हर बेटी को खुलकर जीने की आजादी दिलाने की इस लड़ाई में निर्भया बलि
की बेदी पर चढ़ गई और हमें दे गई एक अनुत्तरित प्रश्न कि क्या वाकई में आज भी इस
देश में बेटियाँ सुरक्षित है?
- गायत्री
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