भर दें फिर हुंकार, मचा दे हाहाकार
जब कोई बेजुबान
पक्षी किसी गिद्ध का शिकार बन जाता है तो वह उस पक्षी को तब तक अपनी नुकीली चोच से
नोंचता है, जब तक कि उसके प्राण जिंदा रहने की अंतिम कोशिश से भी हार न मान ले। अब
लाश में तब्दील हुए पक्षी को चीरने-फाड़ने की कार्यवाही की जाती है। जिसके लिए उस
विशेष समुदाय के पक्षियों का दल मिलजुलकर अपनी चोच से लाश के रूप में माँस के उस लौंदे
को नोंच-नोंचकर छलनी सा पारदर्शी बना देते है। लेकिन इतने पर भी उन भूखे जानवरों
की भूख नहीं मिटती। वह सब अपने-अपने तरीके से लाश के माँस को नोंचते हुए चटखारे
लेकर उसका भक्षण करते हैं। आप इसे क्या कहेंगे भूख की तृप्ति, हवस या और कुछ? यह
तो बात हुई जानवरों की, जिनका स्वभाव ही कमजोर को डराकर उस पर शासन करना या उसे मारकर
उसका भक्षण करना होता है। चलिए इस विभत्स दृश्य की कल्पना करने के बाद हम बात करते
हैं आपके और मेरे मतलब की, यानि कि इंसानों की।
पिछले कई महिनों से
कभी किसी भगवावस्त्रधारी तो कभी किसी श्वेत वस्त्रधारी पर नाबालिग लड़कियों व
महिलाओं के साथ ज्यादती करने के मामले उजागर होते जा रहे हैं। यह सब देखकर ऐसा
लगता है कि जैसे आरूषि के बाद खामोश हो चुकी लड़कियों की दर्द भरी चिखे दिल्ली गैंगरेप
की शिकार निर्भया के बाद फिर से इन फिजाओं में गूँजने लगी है। सालों से सीने में
दफन औरत की आबरू के लुटेरों की करतूतों से दबी-सहमी डर भरी सिसकियाँ अब आसाराम और
नारायण के मामलों में एक बार फिर से तेज सुर में सुनाई दे रही है। आज के इस माहौल
में हर तरफ वात्सल्य, करूणा और प्रेम की देवी कही जाने वाली औरत अपनी झोली फैलाएँ
इंसाफ की गुहार कर रही है। न केवल समाज की बेटियाँ बल्कि घर की बेटियाँ भी अपने
पिता, पति, भाई और मित्र से नारी जाति के प्रति न्याय की माँग रही है।
हालांकि यह बड़े
दु:ख की बात है कि न केवल महानगरों में बल्कि छोटे शहरों, गाँवों व कस्बों में,
जंगलों में और बाबाओं के आश्रमों में बलात्कार व यौन शोषण के काले कारनामों को
अंजाम दिया जा रहा है। चौंकाने वाली बात तो यह है कि जनता के साथ इंसाफ करने वाले
जज, निष्पक्ष रूप से सच-झूठ को उजागर कर लोकतंत्र का चर्तुथ स्तंभ कहे जाने वाले पत्रकार,
आम जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता और अपराधियों को पकड़ने वाले पुलिसकर्मी
भी आज यौन शोषण के आरोपों से अछूते नहीं है।
यहाँ हम बात कर रहे
हैं देश में महिला यौन शोषण व बलात्कार के बढ़ते मामलों की। क्या कोई यकीन कर सकता
है कि किस तरह से लड़कों की शक्ल पाए जानवरों ने एक लड़की को चलती बस में अपनी हवस
का शिकार बनाया और ऐसी बदहवास हालत में उसे सड़क पर छोड़ दिया कि वह अपनी आपबीती
भी किसी को बँया न कर सके। यहाँ हथौड़ा, लौहे की रॉड या हॉकी के दमदार वार किसी
पत्थर पर नहीं बल्कि एक अधमरी लड़की पर पड़े। निर्भया के साथ जैसी घृणित घटना हुई
वैसी ही घृणित घटना मध्यप्रदेश के बेटमा में भी घटित हुई थी। बेटमा गैंगरेप की
घटना भी इसी तरह दिल दहला देने वाली और डर के मारे सिहरकर रोंगटे खड़े कर देने
वाली घटना थी। जिसमें गाँव के छोरों के साथ मंत्री-संत्री के बिगड़े लाडले भी
शामिल थे। इन दोनों मामलों में अंतर है तो बस इतना कि निर्भया मरकर भी दुनिया को अपनी
दहाड़ सुना गई और बेटमा की बेटी जितेजी इंसाफ की इस जंग को अंतिम पड़ाव तक
पहुँचाने का दम भर रही है लेकिन कब तक? कभी न कभी तो समाज, राजनीति या पेपरबाजी के
चलते बदनामी के डर से यह आवाज भी खामोश हो जाएगी। कानून को न्याय देने में सालों
लग जाएँगे।
इन सब मामलों में
दोषी लोग कुछ वर्षों की सजा काटने के बाद फिर जहरीले जानवरों की तरह इस समाज में
अपनी गंदी सोच की गंदगी फैलाने के लिए आपके और हमारे बीच मौजूद होंगे। उनके जहरीले
डंक फिर किसी मासूम बेटी या बहू को अपना शिकार बनाएँगे और हम मौन रहेंगे। क्या
करें न चाहकर भी परिस्थितियाँ और सामाजिक बँधनों की दरकार बलात्कार व यौन शोषण की
शिकार लड़कियों के लब सिल देती है।
हैवानियत की बुरी
नजर का शिकार हुई लड़कियों की सिसकियों भरी आवाज जब-जब न्याय के लिए उठती है तो
उनकी रूदन भरी आवाज पर भूखे भेडि़यों की बुरी नजर घात लगाएँ बैठी होती है। तभी तो भगवान
के दूतों से अपने पर हुए अत्याचार का जिक्र करने वाली महिलाएँ कभी ढ़ोंगी बाबाओं की
और कानून से न्याय की गुहार लगाने वाली लड़कियाँ कभी वकीलों व जजों का शिकार बनती
है। राजनेता जो ऐसे मामलों को संसद तक ले जाते हैं। उन्हीं के भाई-बंधु किसी की मासूम
बेटी की लाचारी को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं। उसके बाद बारी आती है तो इन सभी
लोगों की खिचाई करने वाले पत्रकारों की, जिनके यहाँ खामोशी से महिलाओं का यौन शोषण
होता है और गाजे-बाजे के साथ कलम और ब्रेक्रिंग न्यूज के हथियारों के साथ समाज में
हो रहे यौन शोषण का विरोध। दोमुँही तलवार की तरह कलम भी कभी-कभी दगा दे जाती है।
कहने को तो हममें से
दोषी कोई नहीं है और मानने को दोषी हर कोई है। बुरे को देखकर आँख मूँद लेना
समझदारी नहीं है बल्कि बुरे का विरोध कर उसके खिलाफ आवाज उठाना ही असली बुद्धिमत्ता
का परिचायक है। मैं यह नहीं कहती कि महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ पुरूष
आवाज नहीं उठाते। यदि लोग यह सोचते हैं तो माफ कीजिएगा पर मैं ऐसे लोगों की सोच से
इत्तेफाक नहीं रखती। मेरी राय इससे ठीक उलट है। मुझे लगता है कि महिलाओं पर हो रहे
अत्याचारों के खिलाफ जितनी आवाज महिला समाज नहीं उठाता। उससे कई गुना अधिक स्वर उन
पुरूषों के बुलंद होते हैं, जो महिलाओं को आज भी अपनी बहन, बेटी, बहू व माँ के रूप
में सम्मानजनक दृष्टि से देखते हैं। कहा जाता है कि ‘नजरे बदलने से नजारें बदल
जाते हैं।‘ तो यह बिल्कुल सही है। यदि हम अपनी नजरों की खोट को कम कर देंगे और नारी
की सुंदरता को हम एक सही नजरिए व सही दृष्टिकोण से देखेंगे तो शायद हमारा समाज व
देश दोनों ही अपराधमुक्त हो जाएँगे।
‘जहाँ बल है, वहाँ
छल है। बेटी है तो कल है।‘
- - गायत्री
बेटी है तो कल है।
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी के लिए शुक्रिया संजय जी। सही कहा आपने बेटी ही आने वाला कल है।
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