लाजवाब हुस्न की मलिका - मीना कुमारी

तुम क्या करोगे सुनकर मुझसे मेरी कहानी,
बेलुत्फ जिंदगी के किस्से है फीके-फीके

महज़बीन बानो यानि कि मीना कुमारी का यह श़ेर उनकी जिंदगी की विरानियों का दर्द बँया करता है। फिल्म इंडस्ट्री में ‘ट्रेजेडी क्वीन’ के रूप में अपनी पहचान बनाने वाली मीना कुमारी बेहतरीन अदाकारा के साथ एक उम्दा उर्दू शायरा भी थी। आईने सा उजला लंबा चेहरा और गालों पर अठखेलियाँ करते घुँघराले बाल, शाम के ज़ाम के नशे सी नशीली आँखे और बड़े होठों से आँचल दबाने का वो कातिलाना अंदाज .... कोई इस रूप-लावण्य को कैसे भूल सकता है जनाब? लाजवाब माँसल सौंदर्य से परिपूर्ण ‘पाकीज़ा’ की मीना की संगमरमरी काया ने अपने हुस्न से जलवों से फिल्म के रूपहले पर्दे पर धूम मचा दी थी। जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ 50 व 60 के दशक की उस लाजवाब नायिका की, जिसने ‘साहिब बीबी और गुलाम’ में छोटी बहू के किरदार को अपने उम्दा अभिनय से अमरता प्रदान की थी। मीना कुमारी को फिल्म परिणीता में ललिता, काजल में माधवी, बेजू बावरा में गौरी और साहिब बीवी और गुलाम में छोटी बहू के किरदार के लिए बेहतरीन अभिनेत्री के फिल्म फेयर पुरस्कार से भी नवाजा गया।
   
यह नरगीस और मधुबाला जैसी मँजी हुई अदाकाराओं का वह दौर था, जिसमें अपनी जगह बनाना किसी भी अभिनेत्री के लिए बहुत ही मुश्किल था। लेकिन वह मीना ही थी, जिसकी चमक ने आज़ाद, सहारा, चिराग कहाँ रोशनी कहाँ, पाकीज़ा, आरती, मैं चुप रहूँगी, दिल एक मंदिर, फूल और पत्थर आदि फिल्मों में अपने बेमिसाल अभिनय से दर्शकों का दिल जीत लिया। मीना के अभिनय के कमाल से जितना आबाद फिल्म इंडस्ट्री का मंच था उससे कहीं गुना ज्यादा वीरान मीना का व्यक्तिगत जीवन था। फिल्म डायरेक्ट कमाल अमरोही के प्रेम में दीवानी होकर मीना ने अपने से उम्र में काफी बड़े कमाल के साथ निकाह कर उनकी दूसरी बीवी के तौर पर खुशी-खुशी वैवाहिक जीवन की शुरूआत की। न केवल मीना ने कमाल को अपनाया बल्कि उनकी पहली पत्नी के बेटे को भी छोटी अम्मीजान के रूप में मीना का भरपूर स्नेह मिला। निकाह के कुछ सालों बाद मीना और कमाल के बीच वैचारिक मतभेद के चलते 1964 में तलाक लेकर इन दोनों ने अपने जीवन के रास्ते एक-दूसरे से अलग कर लिए। हकीकत तो यह कहती है कि तलाक के बाद धीरे-धीरे मीना का जीवन तन्हाईयों में सिसकियाँ बन रह-रहकर अतीत की मीठी यादों के नाम हो गया। शराब के जाम में अपने दुख को भुलाने की नाकाम कोशिशों ने मीना के शरीर को इतना अधिक लाचार बना दिया कि शराब के अतिरेक से लिवर साइरोसिस के कारण 1972 में मीना कुमारी अपने सभी दीवानों को अलविदा कहकर सदा के लिए मौत की गुमनाम दुनिया में खो गई।
    ‘मौसम है आशिकाना, ऐ दिल कहीं से ऐसे में उनको भी साथ लाना ...’ वाकई में यह हमें गीत मीना की कभी न खत्म होने वाली उन यादों के सफर पर ले जाता है। जहाँ चारों ओर बस मीना कुमारी की सफलता की ही गूँज सुनाई देती है।

मीना कुमारी की अदाकारी से सजी फिल्में :
पाकीज़ा (1972), मेरे अपने (1971), सात फेरे (1970), अभिलाषा (1968), मँझली दीदी(1967), चाँद का पालना (1967), फूल और पत्थर (1966), साँझ और सवेरा (1964), दिल एक मंदिर (1963), आरती (1962), बहू बेगम (1967), परीणिता (1953), दो बीघा जमीन (1953), बेजू बावरा (1952) .... आदि।

मीना कुमारी पर फिल्माएँ सदाबहार गीत :
आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे ...
चलते-चलते यूँही कोई मिल गया था .....
पिया ऐसो जिया में समाए मयो रे ....
न जाओ सैय्या छुड़ा के ...
नदिया के पानी ...
दिया बुझा-बुझा ...
तुम्हें जिंदगी के उजाले मुबारक ...
प्यार का सागर देखा है ...
दिया ना बुझे मेरे घर का ...
शराबी-शराबी मेरा नाम हो गया ...
मेरी याद में तुम न आँसू बहाना ...
मौसम है आशिकाना ...
ज्योति कलश छलके ....

-          - गायत्री       

Comments

Popular posts from this blog

महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ब्लॉगरों का जमावड़ा

नेत्रहीन बच्चियों को स्वावलम्बी बनाता 'आत्मज्योति नेत्रहीन बालिका आवासीय विद्यालय'

‘संजा’ के रूप में सजते हैं सपने