समलैंगिक संबंधों की खिलाफत क्यों?

कहते हैं जहाँ बंदिशे अधिक होती है। वहाँ बँधनों को तोड़ने की दरकार भी उतनी ही तीव्र होती है। बात ठीक वैसे ही है, जैसे कि प्रेम संबंधों व प्रेम विवाह की खिलाफत करने वाले समुदायों में सबसे अधिक प्रेम संबंध व ऑनर किलिंग के मामले देखने को मिलते हैं। ऐसे ही समुदायों में सामाजिक रिश्तों के प्रति विरोध सबसे अधिक देखा जाता है। समलैंगिक संबंधों को ‘अप्राकृतिक हरकत’ करार देकर उसे गैरकानूनी बताने वाले देश की सर्वोच्च अदालत के समलैंगिक संबंधों के मामले में लिए गए फैसले का भविष्य भी कुछ इसी ओर ईशारा कर रहा है।
वर्ष 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) खत्म कर मर्जी (आपसी सहमति) से समलैंगिक संबंध बनाने को अपराध मानने से इन्कार कर दिया था। लेकिन अभी कुछ दिनों पहले आए देश की सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को एक सिरे से खारिज कर दिया। जिसके अनुसार धारा 377 संवैधानिक है और समलैंगिक संबंध दण्डनीय अपराध की श्रेणी में आते हैं। हालांकि कोर्ट का यह फैसला शायद समाज की उस सकुंचित मानसिकता का परिचायक कहा जा सकता है। जिसमें किसी भी परिवर्तन या नई चीज का सामना करने से पहले से ही उससे किनारा कर लिया जाता है। जिसका दूरगामी परिणाम सदैव बुरा ही देखने को मिला है। सच कहा जाएँ तो आज भी हमारे समाज में संबंधों को लेकर वैचारिक खुलेपन का अभाव देखने को मिलता है। जिसके दूरगामी परिणाम तलाक, बलात्कार, यौन शोषण आदि के रूप में बड़े ही खतरनाक होते हैं परंतु हमें क्या है। हम तो अतीत और वर्तमान में जीने वाले लोग है, जो भविष्य की चिंता से दूर ही रहना पसंद करते हैं।   
समलैंगिक संबंधों के बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ऐतिहासिक व अच्छा बताने वाले लोग इसे विवाह की सामाजिक व्यवस्था के हित में किया गया फैसला मानते हुए अपने तर्क दे रहे हैं। लेकिन मेरा यह मानना है कि इन संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखने से ये संबंध नहीं बनाएँ जाएँगे। ऐसा सोचना हमारा भ्रम है बल्कि मुझे तो लगता है कि वास्तविकता इससे ठीक उलट ही सामने आएगी। अपराध के दायरे में आने से ये प्राथमिक तौर पर इन संबंधों में खुलापन उजागर नहीं होंगा पर चोरी-चुपके सब कुछ बदस्तूर जारी रहेगा। जिसके परिणामस्वरूप विवाह की सामाजिक व्यवस्था का हर दिन तिल-तिल कर मखौल उड़ेगा, जिस व्यवस्था को बचाने का तर्क देकर हम इन संबंधों को अनैतिक करार दे रहे हैं। क्या ऐसे में परिवारों में बिखराव व संबंधों में असंतुष्टि का भाव पैदा नहीं होगा? ... शायद जरूर होगा। ऐसा होने से तलाक के मामलों में पहले से अधिक बढ़ोत्तरी देखने को मिलेगी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में ‘सहमति’ को प्रमुख घटक माना था परंतु सुप्रीम कोर्ट ने इस घटक को दरकिनार कर फैसले को ही पूरा उलट दिया।
मुझे लगता है कि लकीर के फकीर बनने वाले धर्मावलंबी सुप्रीम कोर्ट के मुँह से अपना मनमाफिक फैसला उगलवाने के चक्कर में सामाजिक व्यवस्था को ओर अधिक छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। जिसका उदाहरण इस फैसले के विरोध से ही लगाया जा सकता है। कपिल सिब्बल, राहुल गाँधी आदि कई राजनेताओं ने खुले तौर पर जहाँ इस फैसले का विरोध किया। वहीं भाजपा ने संसद के सदन में उठाएँ जाने पर प्रतिक्रिया देने की बात कहकर इस संवेदनशील मुद्दे से किनारा कर लिया। इस फैसले के विरोध से यह बात तो स्पष्ट है कि संसद में जल्द ही यह मुद्दा उठने वाला है और सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय फिर से सवालों के घेरे में आने वाला है क्योंकि कहीं न कहीं न्यायपालिका स्वतंत्र होकर भी विधायिका के नियंत्रण में है। बेहतर है कि इस मुद्दे पर समाज में खुली बहस की जाएँ और उसके पश्चात ही कोई निर्णय लिया जाएँ। जिससे दुनिया को पता लग सके कि फैसलों के मामले में यह तालिबान नहीं है बल्कि हिंदुस्तान है।
- गायत्री 

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