काश-काश में ही लगा ली झूठी आस


आईने में अपनी ढ़लती उम्र को देख-देख रोना, सफेदी को डाई की कालिमा से भिगोना, तंग कपड़ों से तौबा करना और न चाहते हुए भी समय से पूर्व भगवान की भक्ति में खोना ... भला कौन चाहेगा? लेकिन ढ़लती उम्र के इस कड़वे सच को नकारना भी तो इतना आसान नहीं है। तभी तो न चाहते हुए भी हमारे मुँह से अनायास निकल ही जाता है कि काश मेरी उम्र 5-6 साल कम हो जाएँ।

अतीत की मीठी यादों में खोएँ रहना, शाहरूख खान और कैटरीना को जीवनसाथी बनाने के सपने संजोना हम सभी को अच्छा लगता है। जिसका एकमात्र कारण वास्तविकता से परे काल्पनिक जगत में हिलोरे लेती हमारे सपनों की नैया है। जो आज वाकई में राम के भरोसे ही चल रही है।

हमेशा जँवा दिखने की चाह और सब कुछ पा लेने की चाह कई बार हमसे वो काम भी करवा लेती है, जिसे करने में शायद हम ना नुकूर करते परंतु प्रेम की प्यास और जँवा दिखने की आस के आगे तो हम ‘मंजूर है मंजूर है ...’ की रट लगाकर हर काम करने को तैयार हो जाते हैं।

मिला दें तो ‘प्रभु’ ना मिले तो ‘पत्थर’ :
देखों जी, भगवान से हमारी डिमांड भी समय और वक्त देखकर बदलती रहती है। कँवारेपन में अच्छे खूबसूरत जीवनसाथी की चाह और विवाहित होने पर कँवारे प्रेमी या प्रेमिका को पाने की कामना तो हम सभी करते हैं। तभी तो इन दोनों ही स्थितियों में भगवान को अपनी पसंद बताकर सिफारिश के रूप में लगे हाथ दान-दक्षिणा के साथ उनके दर पर अपनी माँग पूरी करने की अर्जी भी हम लगा ही आते हैं। लेकिन रूठी प्रेमिका की तरह प्रभु को मनाना भी इतना आसान नहीं होता है। ‘नो हनी, विदाउट मनी’ की तर्ज पर पूजा-पाठ के साथ भगवान को रिझाने के लिए कभी लड्डू तो कभी नारियल भी चढ़ाना ही पड़ता हैं क्योंकि बगैर रिश्वत दिए तो धरती पर ही हमारे प्रयोजनों की दाल नहीं गलती तो ऊपर आसमान में विराजने वाले भगवान के लिए भी रिश्वत का होना लाजिमी ही है। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन हमारे आदेश देने पर भी जब भगवान हमारा काम नहीं करते। तब उन्हें खरी-खोटी सुनाने और अपने लड्डूओं और नारियल की कीमत गिनाने में भी हम पीछे नहीं हटते। खैर, हो भी क्यों न इस व्यस्ततम जिंदगी में हमने अपने धन के साथ-साथ अपना कीमती वक्त जो भगवान को दिया होता है।

तुम मुझे पहले मिली होती :
यह तो हुई भगवान की बात। अब हम बात करते है इंसान की। किसी के जिंदगी में देरी से मिलने पर भी हम अपनी किस्मत और भगवान के साथ-साथ उस बेचारे इंसान को भी यह कहकर कोसना शुरू कर देते हैं – ‘काश कि तुम मुझे 5-6 साल पहले मिली होती तो आज तुम मेरी होती।‘ यह बात हम केवल छोकरी के संबंध में ही नहीं कहते बल्कि नौकरी और करियर के बारे में भी अक्सर हम यहीं डायलॉग मारते हैं कि ‘काश, मेरे माँ-बाप मुझे बाहर जाने को हाँ कह देते या काश उस वक्त मैं फला इंसान की बात मान लेता तो आज वह नौकरी मेरी होती।‘

हे भगवान, आखिर कब तक आज इसको तो कल किसी ओर को कोसने यह सिलसिला चलता रहेगा? जीवन में संतोष की तलाश कब जारी रहेगी? शायद तब तक जब तक हम स्वयं अपनी काबिलियत को नहीं पहचानेंगे और वर्तमान में जो कुछ हमारे पास है। उसमें खुश रहना नहीं सीखेंगे। यदि हमनें वास्तविकता को अपना लिया तो शायद हमारा कल्याण हो जाएगा। जो सच है उसे स्वीकारो मेरे दोस्त क्योंकि शुर्तर्मुग की तरह रेत में अपना मुँह छुपा लेने से तूफान हमारा नुकसान नहीं करेगा। ऐसा सोचना हमारा भ्रम है। आपने यह तो सुना ही होगा –

‘कभी किसी को मुकम्मल जँहा नहीं मिलता
कही ज़मी तो कहीं आसमा नहीं मिलता।‘

-          गायत्री 

Comments

Popular posts from this blog

महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ब्लॉगरों का जमावड़ा

नेत्रहीन बच्चियों को स्वावलम्बी बनाता 'आत्मज्योति नेत्रहीन बालिका आवासीय विद्यालय'

‘संजा’ के रूप में सजते हैं सपने